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________________ (५२७) युग्मिनां नृतिरश्चां यद्विपद्यानन्तरे भवे । गतिर्दे वगतावेव भगवद्भिर्निरूपिता ॥४३॥ असंज्ञी और संज्ञी - ये दो प्रकार तिर्यंच और केवल संज्ञी मनुष्य ही असंख्य आयुष्य वाले मनुष्य और तिर्यंच में दो जन्म धारण करता हैं, क्योंकि युग्मी मनुष्य और तिर्यंच की मृत्यु के बाद अनंतर जन्म में देवगति ही होती है । इस तरह भगवान् का वचन हैं । (४२-४३) भूकायिकोऽम्योऽग्नि वायुष्वेकान्तरे परिभ्रमन् । भवानसंख्यान् प्रत्येकमनुत्कृष्ट स्थितिः सृजेत् ॥४४॥ पृथ्वीकाय का जीव जघन्य स्थिति में एकांतर में जल, अग्नि और वायुकाय में परिभ्रमण करता हुआ प्रत्येक के अन्दर असंख्य जन्म धारण करता है । (४४) एवमम्बुकायिकोऽपि प्रत्येकं क्ष्माग्नि वायुषु । उत्पद्यमानोऽसंख्येयान् भवानुत्कर्षतः सृजेत् ॥४५॥ इसी ही तरह से अपकाय का जीव भी पृथ्वीकाय, अग्निकाय और वायुकाय- इस तरह प्रत्येक के अन्दर उत्पन्न होता हुआ उत्कृष्ट असंख्य भव धारण करता है । (४५) वह्नि कायोऽपि पृथ्व्यम्बुकायिष्वेकान्तरं भवान् । कुर्यादसंख्याननिलोऽप्येवं पृथ्व्यम्बुवह्निषु ॥४६॥ तथा अग्निकाय एकान्तर में (बीच-बीच में एक जन्म लेकर) पृथ्वीकाय और अपकाय में भ्रमण करता हुआ, और वायुकाय पृथ्वीकाय, अपकाय और अग्निकाय में भ्रमण करता हुआ असंख्य जन्म धारण करता है । (४६) तथा क्ष्माम्भोऽग्नि मरुतः प्रत्येकं च वनस्पतौ । भवानसंख्यान् कुर्वन्ति जायमाना निरन्तरम् ॥४७॥ और पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय और वायुकाय - ये प्रत्येक हमेशा वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते रहने से असंख्यात जन्म धारण करते हैं । (४७) एवं वनस्पतिरपि पृथिव्यादि चतुष्टये । प्रत्येकमुत्पद्यमानः कुर्यादसंख्यकान् भवान् ॥ ४८ ॥ { इसी तरह से वनस्पतिकाय का जीव भी पृथ्वीकाय आदि चारों में से प्रत्येक में उत्पन्न होकर असंख्य जन्म धारण करता है । (४८)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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