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इनकी संज्ञा सब होती हैं, और इन्द्रिय भी सर्व होती हैं। तथा इनको दीर्घकालिक आदि संज्ञा होती हैं और ये संज्ञा व्यक्त होती है इसलिए ये संज्ञी हैं । (१८)
ये तीन द्वार हैं। (२१ से २३)
एषां वेदः क्लीव एवं दृष्टिर्ज्ञानं च दर्शनम् ।
उपयोगा इति द्वार चतुष्कं सुखन्मतम् ॥१६॥
इति द्वार पंचकम् ॥२४ से २८ ॥
इनका वेद नपुंसक वेद ही होता है तथा इनकी दृष्टि, ज्ञान, दर्शन और उपयोग ये चारों द्वार देवता के अनुसार होते हैं । (१६)
ये पांच द्वार हैं। (२४ से २८)
अजोलोमाभिधावेषामाहारावशुभौ भृशम् । गुण स्थानानि योगाश्च भवन्त्यमृत भोजिवत् ॥२०॥ लोमाहारो द्विधा भोगादना भोगाच्च तत्र च । स्यादादिमो ऽन्तर्मुहूर्तात् द्वितीयश्च प्रतिक्षणम् ॥२१॥
इंति द्वार. त्रयम् ॥२६ से ३१॥
आहार में उनके दो बहुत अशुभ आहार होते हैं; १ - ओज आहार और २- लोभ आहार। यह लोभ आहार भी दो प्रकार का होता है; १- भोग से और २. अनाभोग से। इसमें प्रथम अन्तर्मुहूर्त्त में और दूसरा समय-समय पर होता है तथा इनको गुण स्थान और योग दोनों देवता के समान होते हैं। (२०-२१)
तीन द्वार हैं । (२६ से ३१ )
अंगुल प्रमित क्षेत्र प्रदेश राशि वर्तिनि । तृतीये वर्ग मूलघ्ने प्रथमे वर्ग मूलके ॥२२॥ यावान् प्रदेश राशिः स्यात्तावतीषु च पंक्तिषु । एक प्रादेशिकीषु स्युर्यावन्तः ख प्रदेशकाः ॥२३॥ तावन्तो नारकाः प्रोक्ताः सामान्येन जिनेश्वरैः । विशेषतो मानमेषामथ किं चिद्वितन्यते
॥२४॥विशेषकम् ।
अब मान के विषय में कहते हैं- अंगुल प्रमाण क्षेत्र प्रदेश की राशि में रहा और तीसरे वर्ग मूल से गुणा किया हो - इतने प्रथम वर्ग मूल में जितनी प्रदेश राशि