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________________ (५१२) इति यदिह मयोक्तं निर्जराणां स्वरूपम् । तदुरूसमयवाचां वर्णिका मात्रमेव ॥ तदुपहित विशेषान् कोहशेषान् विवेक्तुम् । . प्रभुरिव नृप कोष्टागार जाग्रत्कणौधान् ॥१५४॥ इस तरह मैंने यहां देवों के स्वरूप का वर्णन किया है परन्तु वह तो सिद्धान्त वचनों की रेखा मात्र है। क्योंकि इसमें जो विशिष्टता रही है उस सब को कहने में कोई समर्थ नहीं है। राजा के कोठार में रहे अनाज के ढेर में से जितना विशिष्ट हो उतना ही उठा सकता है, सर्व उठाने में समर्थ कौन हो सकता है? (१५४) विश्वाश्चर्यद कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रातिष- .. . द्राजश्री तनयोऽतनिष्ट विनय श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किलतत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, सर्गो निर्गलितार्थ सार्थ सुभगः सौख्येन पूर्वोऽष्टम् ॥१५५॥ __इति देवाधिकार रूप अष्टम सर्गः। सारे विश्व में जिसकी कीर्ति ने आश्चर्य उत्पन्न किया है ऐसे श्रीमान् कीर्ति विजय जी उपाध्याय के शिष्य और माता राजश्री तथा पिता श्रीयुत तेजपाल के सुपुत्र विनय विजय उपाध्याय ने जो इस जगत् के सारे निश्चित तत्त्वों को दीपक के समान प्रकाश में लाने वाले ग्रन्थ की रचना की है उसके अन्दर से निकलते अर्थ के कारण मनोहर यह आठवां सर्ग विघ्न रहित समाप्त हुआ। (१५५) ॥ देवाधिकार स्वरूप आठवां सर्ग समाप्त ॥.
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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