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________________ (४६६) आद्याः पंच समुद्घाताः पंचस्त्वे तेषु यान्त्यमी । पर्याप्त, गर्भजनरतिर्यक्षु संख्य जीविषु ॥७८॥ पर्याप्त बादरक्ष्माम्बु प्रत्येक क्षितिजेषु च । गर्भजा मनुजाः पंचेन्द्रियास्तिर्यंच एव च ॥७६।। संमूर्छि मा गर्भजाश्चागच्छन्त्यमृतभोजिषु । विशेषस्त्वत्रोदितः प्राक् क्षेत्र लोकेऽपि वक्ष्यते ॥८॥ इनके समुद्घात पहले पांच होते हैं। देव पांच गति में जाते हैं; १- संख्य जीवी पर्याप्त गर्भज मनुष्यत्व, २- इसी प्रकार का तिर्यंचत्व, ३- पर्याप्त बादर पृथ्वीकायत्व, ४- पर्याप्त बादर अल्पकायत्व और ५- पर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पति कायत्व । गर्भज मनुष्य तथा संमूर्छिम और गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच इतने प्रकार के देवों में आ सकते हैं। इसके सम्बन्ध विशेष पूर्व में कहा है और अब बाद में क्षेत्र लोक के अधिकार में कहा जायेगा। (७८ से ८०) मूहूतानि द्वादशैषामुत्पत्ति च्यवनान्तरम् । . सामान्यतः स्यादुत्कृष्ट जघन्यं समयावधि ॥१॥ .: . इनकी उत्पत्ति और. च्यवन के बीच उत्कृष्ट अन्तर सामान्यतः बारह अन्तर्मुहूर्त का है और जघन्य अन्तर एक समय का है। (८१) .: उत्पद्यन्ते च्यवन्तेऽमी एकस्मिन् समये पुनः । .. एकोद्वित्राश्च संख्येया असंख्येयाश्च कर्हिचित् ॥१२॥ .. इति द्वार त्रयम् ॥१२ से १४॥ ...' तथा ये एक समय में एक, दो, तीन- इस तरह संख्यतः और किसी समय असंख्य भी जन्म लेते हैं और इसी प्रकार च्यवन होता है। (८२) ये तीन द्वार हैं । (१२ से १४) सम्यकत्वं देशविरतिं चारित्रं मुक्तिमप्यमी । लभन्ते लघु कर्माणो विपद्यानन्तरे भवे ॥३॥ इति अनन्तराप्तिः ॥१५॥ अब अनन्तराप्ति के विषय में कहते हैं- इन देवों में जो लघुकर्मी होते हैं वे च्यवन कर अनन्तर जन्म में समकित, देशविरति, सर्व चारित्र और मोक्ष भी प्राप्त करते हैं। (८३)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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