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________________ ( ४८४ ) छप्पन्ना तिन्नि सया पुव्वाणं पुव्ववणि अणे । एत्तो पुव्वंगाई इमाई अहि आई अणाई ॥३॥ लख्खाई एगवीसं पुवंगाण सयरीसहस्साइं । छच्चेवेगूणट्ठा पुवं गाणं सया होंति ॥ ४ ॥ तेसीइ सय सहस्सा पणासं खलु भवे सहस्सा य । तिन्नि सया छत्तीसा एव इया अविगला मणुआ ॥५॥ ग्यारह कोटा कोटी बाईस लाख करोड़ चौरासी हजार करोड़ आठ सौ करोड़ दस करोड़ इकासी लाख पंचानवें सौ छप्पन- इतने पूर्व हैं, इक्कीस लाख. सत्तर हजार सात सौ छः-इतने पूर्वांग कहलाते हैं और इसके ऊपर तिरासी लाख पचास हजार तीन सौ छत्तीस - इतनी जघन्यतः गर्भज मनुष्य की संख्या है। (१ से ५) उत्कर्षेण समुदिता गर्भ संमूर्छजा नराः । असंख्येय कालचक्र समयैः प्रमिता मताः ॥११७॥ संमूर्छिम और गर्भज मनुष्य की एकत्रित संख्या उत्कृष्ट असंख्यात काल चक्रों में जितना समय हो, उतनी होती है। (११७) "मनुष्याहि उत्कृष्ट पदेऽपि श्रेष्य संख्येय भागगत प्रदेश राशि प्रमाणा लभ्यन्ते इति तु प्रज्ञापना वृत्तौ ॥" इति मानम् ॥३२॥ पन्नावणा सूत्र की वृत्ति में कहा है- 'उत्कृष्ट पद से भी मनुष्य श्रेणि के असंख्यतावें भाग में रही प्रदेश राशि के समान है। ' यह मान द्वार है । (३२ ) गर्भजाः पुरुषाः स्तोकास्ततः संख्यगुणाः स्त्रियः । ततोऽसंख्यगुणाः षंढ नराः संमूर्छिमैर्युताः ॥ ११८ ॥ इति लघ्व्यल्पबहुता ॥३३॥ इनकी लघु अल्प बहुता के विषय में कहते हैं- सब से अल्प गर्भज पुरुष हैं, इससे संख्य गुणा स्त्रियां हैं। इससे असंख्य गुणा समूर्छिम सहित नपुंसक हैं । (११८) यह तेतीसवां द्वार है। (३३)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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