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________________ (४८२) हैं, ज्ञान व अज्ञान सब होते हैं, उपयोग बारह होते हैं और आहार में ओजस् आदि तीन प्रकार का आहार होता है । (१११ ) आहारस्य कावलिकस्यान्तरं स्यात्स्वभावजम् । ज्येष्टं दिन त्रयं प्राग्वदनाहार कतापि च ॥ ११२ ॥ द्विक्षणा विग्रह गतौ समुद्घाते तु सप्तमे । भवत्यनाहारकता तृतीयादि क्षण त्रये ॥११३॥ युग्मं । अयोगित्वे पुनः सा स्याद संख्य समयात्मिका । गुणस्थानानि निखिलान्येषु योगास्तथाखिलाः ॥११४॥ इति द्वार सप्तकम् ॥२५ से ३१ ॥ उनका केवल आहार का उत्कृष्ट स्वाभाविक अन्तर तीन दिन का होता है । इनको अशरीर गति में पूर्व के समान दो समय अनाहारकता भी होती है तथा सातवें समुद्घात में तृतीय आदि तीन क्षण अर्थात् तीसरे, चौथे और पांचवें क्षण में वे अनाहारी होते हैं तथा अयोगित्व में तो वह असंख्य समय तक अनाहारी होते हैं। इनको गुणस्थान सर्व अर्थात् सम्पूर्ण चौदह होते हैं एवं योग सम्पूर्ण होते हैं । ( ११२ से ११४ ) ये सात द्वार हैं। (२५ से ३१ ) गर्भजानां मनुष्याणामथ मानं निरूप्यते । एकोनत्रिंशतांकैस्ते मिता जघन्यतोऽपि हि ॥ ११५ ॥ अब इनके मान-माप के विषय में कथन करते हैं- गर्भज मनुष्य की संख्या में जघन्य से उन्तीस अंक आते हैं। (११५) 'ते च अमी' वह इस प्रकार : छ. तिति ख पण नव तिग चउ पण तिग नव पंच सग ति तिग चउरो । छ दु चउ इग पण दु छ इग अड दु दु नव सग जहन्न नरा ॥ ११६ ॥ इति पर्यन्त वर्तिनोंक स्थानात् आरभ्य अंकस्थान संग्रहः ॥ छ:, तीन, तीन, शून्य, पांच, नौ, तीन, चार, पांच, तीन, नौ, पांच, सात, तीन, तीन, चार, छ:, दो, चार, एक, पांच, दो, छ:, एक, आठ, दो, दो, नौ और सातइस तरह उलटा करते अर्थात् ७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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