SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 514
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४७७ ) जिसने राज्य-पाट का त्याग किया है वह चक्रवर्ती देवलोक में अथवा मोक्ष में जाता है। इसी तरह बलदेव भी स्वर्गगामी अथवा मोक्षगामी होता है। (८३) • इस तरह यह गति द्वार पूरा हुआ। (१३) असंख्यायुनृतिरश्चः सप्तमक्षिति नारकान् । वाय्वग्नी च बिना सर्वेऽप्युत्पद्यन्ते नृ जन्मसु ॥ ८४ ॥ अब आगति के विषय में कहते हैं- असंख्य आयुष्य वाले मनुष्य तथा तिर्यंच, सातवें नरक के जीव, वायुकाय के जीव तथा अग्निकाय के जीव- इनके अलावा अन्य सर्व प्राणी मनुष्य गति में आते हैं। (८४) अर्हन्तो वासुदेवाश्च बलदेवाश्च चक्रिणः । सुरनैरयिकेभ्यः स्युर्नृतिर्यग्भ्योर्न कर्हिचित् ॥८५॥ और जो अर्हत, वासुदेव, बलदेव और चक्रवर्ती होते हैं वे देवता और नरक के जन्म में से ही निकलकर होते हैं, मनुष्य या तिर्यंच के जन्म से नहीं होते (८५) तत्रापि - प्रथमादेव नरकात् जायन्ते चक्रवर्तिणः । द्वाभ्यामेव हरिबलाः त्रिभ्यः एव च तीर्थपाः ॥ ८६ ॥ उसमें भी चक्रवर्ती पहले ही नरक में से, वासुदेव तथा बलदेव दो नरक में से और अर्हत तीन नरक में से निकलकर आते हैं। (८६) चतुर्विधाः सुराश्च्युत्वा भवन्ति बलवर्तिणः । जिना विमानिका एवं हरयोऽप्यननुत्तराः ॥८७॥ चार प्रकार के देव च्यवन कर बलदेव अथवा चक्रवर्ती होते हैं, वैमानिक देव ही च्यवन कर जिन होते हैं और अनुत्तर विमान रहित देव ही च्यवन कर वासुदेव होता है। (८७) एवं मनुष्यरत्नानि यानि स्युः पंच चक्रिणाम् । तान्यागत्या विभाव्यानि सामान्येन मनुष्यवत् ॥८८॥ इसी ही तरह चक्रवर्ती के पांच मनुष्य रत्न होते हैं। इनकी आगति सामान्य रूप में मनुष्य के अनुसार समझना। (८८) वैमानिकेभ्यश्च यदि भवन्ति तानि तर्हि च । अनुत्तर सुरान् मुक्त्वाऽन्येभ्यः स्युर्वासुदेववत् ॥८६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy