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________________ (४६२) 'पचाता ॥३॥ आरभ्य पंच पर्याप्तीस्ते म्रियन्तेऽसमाप्य ताः । प्राणा भवन्ति सप्ताष्टावेषां वाङ्मनसे बिना ॥७॥ . नव प्राण इति तु संग्रहण्यवचूर्णौ ॥ . इति पर्याप्तः ॥३॥ ये पांच पर्याप्त आरम्भ कर इसे पूर्ण करने के पहले ही मृत्यु प्राप्त करते हैं इनको वाचा और मन बिना सात- आठ प्राण होते हैं। संग्रहणी की अवचूर्णी । इनको नव प्राण कहा है। (७) यह तीसरा द्वार है। (३) संख्या योनि कुलानां च नैषां गर्भजतः पृथक् । । योनि स्वरूपं त्वेतेषा विज्ञेयं विकलाक्षवत् ॥८॥ इति द्वार त्रयम् ॥४ से ६॥ इनकी योनि संख्या और इनकी कुल संख्या गर्भज से पृथक् नहीं है इनका योनि स्वरूप विकलेन्द्रिय के समान समझना । (८). ये तीन द्वार हैं। (४ से ६) जघन्योत्कर्षयोरन्तमुहूत्तं स्यात् भवस्थितिः । पृथकत्वं च मुहूर्तानामेषां कायस्थितिमता ॥६॥ इति द्वार द्वयम् ॥७-८॥ इनकी भवस्थिति जघन्य तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है और कायस्थिति पृथकत्व अन्तमुहूर्त की है। (६) ये दो द्वार हैं । (७-८) आद्या त्रिदेही संस्थानं हुडं देहोङ्गुलस्य च । असंख्यांशमितः पूर्वे समुद्घातास्त्रयो मताः ॥१०॥ इति द्वार चतुष्टयम् ॥६-१२॥ इनके प्रथम तीन शरीर होते हैं हुंडक संस्थान होता है, अंगुल के असंख्य भाग जितना देहमान होता है और पहले तीन समुद्घात होते हैं । (१०) ये चार इनके द्वार हैं । (६ से १२)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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