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________________ (४५१) संख्यात असंख्यात आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्य में भी जाते हैं। (१५०) असंख्यायनतिर्यक्षुत्पद्यमानास्त्वसंज्ञिनः । उत्कर्षाद्यान्ति तिर्यंचः पल्यासंख्यांश जीविषु ॥१५१॥ असंज्ञिनो हि तिर्यचः पल्यासंख्यांशलक्षणम् । आयुश्चतुर्विधमपि वघ्नन्त्युत्कर्षतः खलु ॥१५२॥ असंख्यात आयुष्य वाले मनुष्य और तिर्यंच में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग आयुष्य वाले मनुष्य और तिर्यंच में जाते हैं क्योंकि असंज्ञी तिर्यंच उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग वाला चार प्रकार का आयुष्य बंधन करता है। (१५१-१५२) अन्तर्मुहर्तमानं च नतिर चोर्जघन्यतः । देव नारक योर्वर्ष. सहस्रदशकोन्मितम् ॥१५३॥ तत्रापि देवायुर्हस्व पल्यासंख्यांश संमितम् । नृतिर्यग्नारकायूंष्य संख्यघ्नानि यथा क्रमम् ॥१५४॥ वह यदि मनुष्यं अथवा तिर्यंच का आयुष्य बन्धन करे तो जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त बन्धन करता और देव या नरक का आयुष्य बन्धन करे तो दस हजार वर्ष का बन्धन करता है। इसमें भी देवता का आयुष्य जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितना होता है और मनुष्य या तिथंच या नरक का अनुक्रम से असंख्य- असंख्य गुणा होता है (१५३-१५४) . . इदम् अर्थतो भगवती शतक १ द्वितीयोद्देशके ॥ यह भावार्थ श्री भगवती सूत्र के प्रथम शतक दूसरे उद्देश में कहा है। ... -देवषूत्पद्यमानाः स्युर्भवनव्यन्तरावधि । . एतद्योग्यायुषोऽभावान ज्योतिष्कादि नाकिषु ॥१५५॥ वह देवगति प्राप्त करे तो भवनपति और व्यन्तर तक की गति प्राप्त कर सकता है परन्तु ज्योतिष्क आदि गति नहीं प्राप्त करता क्योंकि उसको इस गति के योग्य आयुष्य नहीं होता । (१५५) .. यान्ति गर्भजातिर्यंचोऽप्येवं गति चतुष्टये । विशेषस्तत्र नरक गता वेष निरूपितः ॥१५६॥ गर्भज तिर्यंच भी इसी तरह चार गति में जाता है, परन्तु इसमें नरक गति के सम्बन्ध में इस तरह विशेष जानना । (१५६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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