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________________ (११) कुक्षिद्धयेन दण्डः स्यात्तावन्मानं धनुर्भवेत् । युगं वा मुसलं वापि नालिका वा समाः समे ॥६०॥ अंगुलैः पणवत्यैव सर्वेऽपि प्रमिता अमी । सहस्रद्वि तये नाथ क्रोशः स्याद्धनुषामिह ॥६१॥ चतष्ठयेन क्रोशानां योजनं तत्पुनस्त्रिधा । उत्सेधात्म प्रमाणख्यैरंगुलैर्जायते पृथक् ॥६२॥ एवं पादादि मानानां सर्वेषा त्रिप्रकार ताम् ।। विभाव्य विनियुञ्जीत स्व स्व स्थाने यथायथम् ॥६३॥ अब प्रस्तुत विषय में कहते है- छह अंगुल का एक पाद' होता है, दो पाद की एक 'वेत' होता है, दो वेत का एक 'हाथ' और दो हाथ की एक 'कुक्षि' होती है। दो कुक्षि का एक दंड होता है। 'धनुष्य युग' अर्थात् 'मूसल' और 'नालिका' - ये तीनों दण्ड समान ही हैं, इस गिनती से धनुष्य के ६६ अंगुल होते हैं और दो हजार धनुष्य का एक 'कोस' होता है और चार कोस का एक 'योजन' कहलाता है। इस योजन के उत्सेधांगुल, आत्मांगुल और प्रमाणांगुल के इन तीन माप के लिए अलगअलग तीन भेद हैं 'पाद' आदि सर्व के भी इसी तरह तीन-तीन भेद हैं, इनको योग्य रूप में अपने-अपने स्थान पर रखना.। (५६ से ६३) प्रमाणांगल निष्पन्नयोजनानां प्रमाणतः । . असंख्य कोटा कोटीभिरेका रज्जुः प्रकीर्तिता ॥६४॥ स्वयभ्यूरंमणाब्धेर्ये, पूर्व पश्चिम वेदिके । तयोः परान्तान्तरालं रज्जु मानमिदं भवेत् ॥६५॥ प्रमाणांगुल के माप से जो योजन, निष्पन्न होता है उस असंख्यात् कोड़ा-कोड़ी योजन का एक 'रज्जु' अर्थात् राजलोक होता है। स्वयंभूरमण समुद्र के पूर्व और पश्चिम दोनों वेदिकाओं के बीच जितना अन्तर है उतना एक 'रज्जु' का माप होता है। (६४-६५) लोकेषु च - यवोदरैरंगुलमष्टसंख्यैः हस्तोऽगुलैः षड्गुणितैश्र्चतुर्भिः । हस्तैश्चतुर्भिर्भवतीह दण्डः क्रोशः सहस्रद्वितयेन तेषाम् ॥६६॥ स्याद्योजनं क्रोश चतुष्टयेन तथा कराणां दशकेन वंशः । निवर्त्तनं विंशति वंश संख्यैः क्षेत्रं चतुर्भिश्च भुजैर्निबद्धम् ॥६७॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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