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________________ (४४०) और इस तरह कभी विषमय नहीं होता है और न होने वाला ही है। ऐसा भावार्थ भगवती सूत्र में कहा है। (८३-८४) घोण साद्या मुकुलिनः इत्येवमहयो द्विधा । एकाकारा अजगरा आसालिकानथ बुवे ॥५॥ मुकुली अर्थात् फण रहित गोनस जाति के सर्प होते हैं। इस तरह दो प्रकार के सर्प हुए। पेट से चलने वाला दूसरी प्रकार का अजगर है। यह एक ही प्रकार का सर्प होता है जो बड़े-बड़े प्राणी को निगल जाता है। (८५). . अन्तर्मनुष्य क्षेत्रस्य के वलं कर्म भूमिषु । काले पुनर्युगलिनां विदेहेष्वेव पंच सु ॥८६॥ चक्र चर्धचकि रामाणां महानृप महीभृताम् । स्कन्धावार निवेशानां विनाशे समुपस्थिते ॥८७॥ एवं च ....... नगर ग्राम निगम खेटादीनामुपस्थिते । विनाशे तदधः सम्मूर्छन्त्यासालिक संज्ञकाः ।।८॥ विशेषकं। अब तीसरे प्रकार के आसालिक' नामक संर्प का स्वरूप कहते हैं- भरत क्षेत्र के अन्दर केवल कर्मभूमियों में से १० कर्मभूमियों में जब युगलिया का समय हो तब पांच, महाविदेहों में, चक्रवर्ती वासुदेव तथा बलदेव के समान महान् राजाओं की सेना के समय में तथा नगर, गांव, निगम और द्वीप टापू आदि के विनाश समय में उनकी निश्रा में आसालिक नामक संमूर्छिम जन्तु उत्पन्न होता है। (८६ से ८८) अंगुलासंख्य भागांगाः प्रथमुत्पन्नका अमी । . वर्धमान शरीराश्चोत्कर्षाद् द्वादश योजनाः ॥८६॥ बाहुल्य पृथुलत्वाभ्यां ज्ञेयास्तदनुसारतः । अज्ञानिनोऽसंज्ञिनश्च ते मिथ्यादृष्टयो मताः ॥६०॥ उत्पन्न एव ते नश्यन्त्यन्तर्मुहूर्त जीविताः । नष्टेषु तेषु तत्स्थाने गर्ता पतति तावती ॥१॥ भयंकराथ सा गर्ता राक्षसीव बुभुक्षिता ।, क्षिप्रं ग्रसति तत्सर्व स्कन्थावार पुरादिकम् ॥१२॥ जब वह प्रथम बार उत्पन्न होता है तब उसका शरीर मात्र अंगुल के असंख्यातवें भाग के समान होता है और फिर बढ़ते हुए आखिर में बारह योजन का
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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