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________________ (४३५) कहा है कि- जैसे अंगुल के संख्यात और असंख्यात प्रदेश से भरे हुए अलग-अलग प्रतर का पर्याप्त है वैसे ही अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय जीव तथा संज्ञी अवहरता है। (५५) यह मान प्रमाण द्वार है। (३२) सर्वस्तोकाः चतुरक्षाः पर्याप्ताः परिकीर्तिताः । पर्याप्त द्वीन्द्रियास्तेभ्योऽधिकास्तेभ्यस्त्रिस्वास्तया ॥५६॥ अब अल्पबहुत्व के विषय में कहते हैं- पर्याप्त चतुरिन्द्रय सबसे थोड़े हैं, इससे अधिक. पर्याप्त द्वीन्द्रिय हैं और इससे भी अधिक पर्याप्त त्रीन्द्रिय होते हैं। (५६) असंख्येय गुणास्तेभ्योऽपर्याप्त चतुरिन्द्रियाः। त्रिद्वीन्द्रिया अपर्याप्तास्ततोऽधिकाधिकाः क्रमात् ॥७॥ .. इति अल्पबहुत्व ॥३३॥ इससे असंख्यात गुणा अपर्याप्त चतुरिन्द्रय हैं, इससे अधिक अपर्याप्त त्रीन्द्रिय हैं और इससे विशेष रूप में अधिक द्वीन्द्रिय होते हैं। (५७) . यह अल्पबहुत्व द्वार है। (३४) . इमे प्रतीच्यामत्यल्पाः प्राच्या विशेषतोऽधिकाः । . दक्षिणस्यामुत्तरस्यामेभ्योऽधिकाधिकाः क्रमात् ॥८॥ अल्पतां बहुतां चानुसरन्त्येतेऽम्बु कायिनाम् । प्रायोजलाशयेष्वेषा भूम्नोत्पत्तिः प्रतीयते ॥५६॥ द्वयक्षाः पूतर शंखाद्याः स्युः प्रायो बहवो जले । शेवालादौ च कुन्थ्वाद्या भुंगाद्याश्चाम्बुजादिषु ॥६०॥ इति दिग पेक्षया अल्पबहुत्वम् ॥३४॥ अब दिगपेक्षया अल्पबहुत्व कहते हैं- पश्चिम दिशा में बहुत अल्प विकलेन्द्रिय होते हैं, पूर्व में इससे अधिक होते हैं, दक्षिण दिशा में इससे अधिक और उत्तर दिशा में और भी अधिक होते हैं। इनका अल्पत्व अथवा बहुत्व अप्पकाय जीवों के अनुसार जानना। क्योंकि प्राय: इनकी उत्पत्ति अधिकत: जलाशयों में ही दिखती है, पुरे, शंख आदि द्वीन्द्रिय जीव प्रायः जल में बहुत होते हैं । कुंथु आदि
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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