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________________ (४३३) द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव को अचक्षुदर्शन होता है जबकि चतुरिन्द्रय जीव को चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन दोनों जिनेश्वर देव ने कहे हैं। (४५) - यह दर्शन द्वार है । (२७) . स्युः साकारोपयोगास्ते ज्ञानाज्ञानव्यपेक्षया । निराकारोपयोगास्ते दर्शनापेक्षया पुनः ॥४६॥ - इति उपयोग ॥२८॥ विकलेन्द्रिय जीव को ज्ञान और अज्ञान की अपेक्षा से साकार उपयोग होता है जबकि दर्शन की अपेक्षा से निराकार उपयोग होता है। (४६) यह उपयोग द्वार है । (२८) द्विवक स्त्रिक्षणान्तश्च संभवत्येषु विग्रहः। ततस्तत्रैक समयं व्यवहाराद नाह तिः ॥४७॥ निश्चयात् द्वि. समया स्यादनाहारिता किल । विग्रहे विकलाक्षाणामाहारक त्वमन्यदा ॥४८॥ ..: विकलेन्द्रिय जीव को दो वक्र घाले और तीन समय तक का विग्रह संभव हो सकता है और इस विग्रह गति में व्यवहार नय की अपेक्षा से वे एक समय अनाहारी रहते हैं. परन्तु निश्चय नय की अपेक्षा से दो समय तक अनाहारी रहते हैं । अन्यदा ये आहारक होते हैं। (४७-४८) .. ' एते प्रागोज आहारास्ततः पर्याप्त भावतः । लोमाहाराः कावलिकाहारा अपि भवन्त्यमी ॥४६॥ ... संचिताचित मिश्राख्य एषामाहार इष्यते। ..अन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्ट माहारस्यान्तरं मतम् ॥५०॥ . इति आहारः ॥२६॥ पहले तो इनको ओज आहार होता है, परन्तु फिर भाव प्राप्त करते हैं तब उनको लोभ आहार और कवल आहार भी होते हैं। और उनको सचित, अचित और मिश्र- इस तरह तीन आहार होते हैं। इनके दो आहार के बीच का उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त का है। (४६-५०) यह आहार द्वार है। (२६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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