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जीवद्गवादिदेहोत्थ कृम्यादीनां सचित्तता । अचित्त काष्ठाद्युत्पन्न घुणादीनाम चित्तता ॥१८॥ सचित्ताचित्त काष्ठादि संजातानां तु मिश्रका । उष्ण शीता च शीतोष्णेत्यपि सा त्रिविधा मता ॥१६॥
इति योनि स्वरूपम् ॥६॥ अब योनि का स्वरूप कहते हैं- जिसकी योनि विवृत्त होती है और वह सचित, अचित और मिश्र इस तरह तीन प्रकार की है । जीते बैल आदि के शरीर से निकलते कीड़े आदि की योनि सचित है अचित काष्ठ आदि के कीड़ों की अचित योनि होती है तथा सचित अचित काष्ठ आदि कीड़ों की मिश्र योनि है तथा उष्ण, शीत व शीतोष्ण- इस तरह भी तीन प्रकार की योनि कही है। (१७ से १६)
यह योनि द्वार है। (६) द्वयक्षाणां द्वादशाब्दानि भवेज्ज्येष्ठा भवस्थितिः । त्र्यक्षाणां पुनरे कोनपंचाशदेव वासराः ॥२०॥ षण्मासाश्चतुरक्षाणां जघन्यान्तर्मुहूर्त्तकम् ।
सान्तर्मुहूर्तांना त्वेषां स्यात्पर्याप्ततया स्थितिः ॥२१॥ .
इति भवस्थितिः ॥७॥ अब भवस्थिति का स्वरूप कहते हैं- द्वीन्द्रिय वाले जीवों की उत्कृष्ट भव स्थिति बारह वर्ष की है। त्रीन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट भवस्थिति उनचास दिन की है, चतुरिन्द्रय जीव की उत्कृष्ट भवस्थिति छः मास की है और जघन्य भव स्थिति तो सर्व विकेलेन्द्रिय की अन्तर्मुहूर्त की है और उनके पर्याप्त रूप की स्थिति अन्तर्मुहूर्त से कम है। (२०-२१)
यह. भंव स्थिति द्वार है। (७)
ओघतो विकलाक्षेषु कायस्थितिरूरी कृता । संख्येयाब्द सहस्राणि प्रत्येकं च तथा त्रिषु ॥२२॥ पर्याप्तत्वे तु नवरं द्वयक्षकाय स्थितिर्मिता । संख्येयान्येव वर्षाणि श्रूयतां तत्र भावना ॥२३॥ भवस्थिति द्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टा द्वादशाब्दिकी । तादृग् निरन्तर कियद् भवादाना दसौ भवेत् ॥२४॥
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यह