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छठा सर्ग विकलान्यसमग्राणि स्युर्येषामिन्द्रियाणि वै । विकलेन्द्रिय संज्ञास्ते स्युर्द्वित्रिचतुरिन्द्रयाः ॥१॥
जिन जीवों की इन्द्रिय विकल अर्थात् कम हों- सम्पूर्ण रूप में न हों, वह विकलेन्द्रिय कहलाता है अर्थात् दो इन्द्रिय वाले, तीन इन्द्रिय वाले और चार इन्द्रिय वाले जीव विकलेन्द्रिय कहलाते हैं। (१)
तत्र प्रथमं भेदाः ॥ प्रथम यह विकलेन्द्रिय जीव के भेद हैं । (१) ..
अन्तर्जा कृमयो द्वेधा कुक्षिपायु समुद्भवाः । विष्टाद्यमेधजाः कीटाः काष्ट कीटा घुणाभिधाः ॥२॥ गंडोला अलसा वंशीमुखा मातृवहा अपि । जलौकसः पूतरका मेहरा जातका अपि ॥३॥ नाना शंखा शंखानकाः कपर्दशुक्ति चन्दनाः । . इत्याद्या द्वीन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्तया द्विधा ॥४॥
__ इति द्वीन्द्रिय भेदाः। कुक्षि में उत्पन्न होने वाले और गुदा द्वार में उत्पन्न होने वाले- इस तरह दो प्रकार के शरीर ही कृमि, विष्ठा आदि अमेध्य पदार्थों में उत्पन्न होते कीड़े; लकड़ी में उत्पन्न होता घुण नामक कीड़ा, गंडोला केचुआ, वंशीमुखा मातुवहा, जलोपुरा मेहरा, जातक, नाना प्रकार के शंख,शंखला, कौड़ी, सीप, चंदन, जौंक आदि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव होते हैं। ये पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं। (२ से ४)
ये द्वीन्द्रिय के भेद हैं। पीपिलिका बहुविधा घृतेल्यश्चौपदेहिकाः । लिक्षा मर्कोटका यूका गर्दभा मत्कुणादयः ॥५॥ इन्द्र गोपेलिका सावा गुल्मी गोमय कीटकाः ।। चौरकीटा धान्य कीटाः पंच वर्णाश्च कुन्थवः ॥६॥ तृण काष्ठ फलाहाराः पत्रवृन्ताशना अपि । इत्याद्यास्त्रीन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्त तया द्विधा ॥७॥ .