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इक्षु वाटिका अर्थात् गन्ने के बाग आदि के मूल आदि नौ में देव उत्पन्न होते ही नहीं हैं, वे केवल स्कंध में ही उत्पन्न होते हैं। ॥३०३॥ ___ "इक्षु वाटिका दयस्त्वमी पंचमांगे प्रायो रूढि गम्याः पर्वक विशेषाः ॥अह भंते उख्ख वाडिय वीरण इक्कडन्नामासंवत्त सत्त वन तिमिर सेसय चोर गतलाण एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एव जहेव वंसग्गे तहेव एत्थवि मूलादीया दसउद्देसगा। नवरं। खंघद्देसए देवो उववजइ चत्तारि लेसाओ॥"
इक्षु वाटिका आदि के सम्बन्ध में पांचवें अंग भगवती सूत्र में इस तरह कहा है कि- 'यह प्रायः रूढिगम्य पर्वक विशेषण है। इक्षु वाटिका, वीरण, इक्कड इत्यादि में जीव मूल रूप में संक्रमण करता है। इस तरह होने से पूर्व में बांस के सम्बन्ध में और कह गये हैं इसी तरह यहां भी मूल आदि दस उद्देश समझना, अन्तर इतना है कि स्कंध देश के अन्दर चार लेश्यायुक्त देव उत्पन्न होता है।'
ताल प्रभृति वृक्षाणां तथैकास्थिक भूरुहाम् । तथैव बहु बीजानां वल्लीनामप्यनेकधा ॥३०४॥
उत्पद्यते प्रवालादिष्येव पंचसु निर्जरः । . : न मूलादि पंचकेऽथ नोक्त. शेष वनस्पतौ ॥३०५॥ .. और ताड़ आदि वृक्ष के, एकास्थिक वृक्षों के, बहुबीज वृक्षों के और अनेक प्रकार की वल्ली-लताओं के प्रवाल आदि पांच अंगों में देव उत्पन्न होते हैं। मूल-जड़ आदि पाँच अंगों में उत्पन्न नहीं होते । वैसे ही उत्पन्न नहीं होते जैसे वे पूर्व कहे अनुसार वनस्पति में उत्पन्न नहीं होते हैं। (३०४-३०५)
तथोक्तम्पत्तपवाले पुष्के फले य बीए य होइ उववाओ। रूखखेसु सुरगणाणं पसत्थर सवण्ण गंधेसु ॥
इति भगवती द्वाविंशशत वृत्तौ ॥ तथा इस सम्बन्ध में श्री भगवती सूत्र के बाईसवें शतक की वृत्ति में कहा है कि-सुरगण-देव समुदाय की उत्पत्ति प्रशस्त रस, वर्ण, गंध युक्त वृक्षों के पुष्प, फल और बीज में होती है।
एक सामायिकी संख्योत्पत्तौ च मरणेऽपि च । विज्ञेया सूक्ष्म वनास्ति विरहोऽत्रापि सूक्ष्मवत् ॥३०६॥