________________
(३७०) विशेषतः तल्लक्षणमं चैवम्मूलादि दशकस्येह यस्य भंगो समो भवेत् ।
अनन्त जीवं तद् ज्ञेयं मूलादि दशके खलु ॥७६॥
इसका विशेष प्रकार का लक्षण इस प्रकार है: मूल आदि दस प्रकार के विभाग करते समय जिसका भंग सम अर्थात् समान होता है उसके मूल आदि दस प्रकार अनंतकायिक जानना। (७६)
वनस्पति सप्ततौ सम भंग लक्षणं एवं उक्तम्- . खडि आई चुन्न निष्फाइ याइ वत्तीइ जारिसो भंगो। सवत्थ समसरूवो केआरतरीइ तुल्लो वा ॥१॥ इत्थ पुण विसेसोयं समभंगा हुंति जे सयाकालम् । । तेच्चिय अणत्त कायां न पुणो जे कोमल तेण ॥२॥
वनस्पति सप्तति नामक ग्रन्थ में समभंग का लक्षण इस प्रकार कहा है: खडी आदि का चूर्ण करके उसकी वाट-बत्ती बनाकर उसे तोड़ने से यदि भंग होता है तो वह समभंग होता है अथवा केआर की तरह का विभाग हो वह भी समभाग होता है । यहां इतना विशेष है कि जो हमेशा समभंग होता है वह अनन्तकाय होता है। परन्तु उसकी कोमलता के कारण उसका समभं नहीं होता है। (१-२)
मूलादि दशंकं तु एवम्- - , मूले कंदे खंधे तया य साले पवालपत्ते य । पुप्फे फल बीए विय पत्तेयं जीवठाणाइं ॥७७॥
पूर्व में मूल आदि भेद कहे हैं। वे इस प्रकार हैं: १- मूल,२- कंद, ३- स्कंध, ४- त्वचा, ५- पर्व,६- प्रवाल, ७- पत्र, ८- पुष्प, ६- फल और १०- बीजा ये दसों प्रत्येक जीव के स्थान हैं। (७७)
मूलादेर्यस्य भग्नस्य मध्येहीरो न दृश्यते । अनन्तजीवं तद् ज्ञेयं यदन्यदपि तादृशम् ॥७॥ हीरो नाम विषभः छेदः उद्दन्तुरो वा ॥
जिसके मूल आदि विभाग से बीच में हीर' न दिखे वह और अन्य भी जो वैसा हो वह अनन्तकाय जानना (७८)
यहां हीर नाम अर्थात् विषम छेदन अथवा दांते हैं।