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(३६१) । स्थावराणां सात्मकत्वमनंगी कुर्वतः प्रति । आदौ वनस्पति द्वारा स्पष्टं तदुपपाद्यते ॥२६॥
जो स्थावर जीव वाला नहीं गिना जाता उसके लिए प्रथम वनस्पति द्वारा उस बात को स्पष्ट रूप में समझाकर प्रतिपादन करते हैं। (२६)
पृथ्व्यादीनां सात्मकत्वे युक्ति युक्तेऽपि युक्तयः । वनस्पतेः सात्मकत्वे गम्याः स्थूलदृशामपि ॥३०॥ दिग्मात्रेणात्र ता. एव दर्श्यन्ते व्यक्ति पूर्वकम् । ततस्तदनुसारे ण ज्ञेयान्येष्यपि चेतना ॥३१॥
पृथ्वीकाय.आदि में जीव है, यह बात समझाने में अच्छी युक्ति का उपयोग करना पड़ता है। परन्तु वनस्पति का जीव तत्त्व सिद्ध करने में जो युक्ति लगाने में आती है वह स्थूल दृष्टि वाले को भी समझ में आ सकती है। उन युक्तियों का किंचित् मात्र व्यक्ति पूर्वक दिग्दर्शन कराने में आता है, फिर इसके अनुसार अन्य स्थावरों में जीवत्व-चेतना है, इस तरह विश्वास हो जायेगा। (३०-३१) .
मूले सिक्तेषु वृक्षेषु फलादिषु रसः स्फुटः ।
स चोच्छ्वासमन्तरेण कथमूर्ध्वं प्रसर्पति ॥३२॥ . वृक्ष के मूल में जल सिंचन करने में आता है, इससे फल आदि में रस दिखता है- यह स्पष्ट है । तब वह रस, यदि उच्छ्वास न हो तो ऊंचे स्थान पर कहां से फैलता है ? (३२)
रस प्रसर्पणं स्पष्टं सत्युच्छवासेऽस्मदादिषु ।
तदभावे तदभावो दृष्टश्च मृतकादिषु ॥३३॥ ..... अपने मनुष्य में भी श्वास उच्छ्वास के कारण ही स्पष्ट रूप में रस का प्रसार होता है, परन्तु मृतक आदि में उच्छ्वास का अभाव होने के कारण रस का प्रसार होता नहीं दिखता है। (३३)
अन्वय व्यतिरेकाभ्यां ततो रसप्रसर्पणम् । उच्छ्वासमाक्षिपति यत् व्याप्यं न व्यापकं विना ॥३४॥
इसलिए अन्वय और व्यतिरेक से रस का प्रसर्पण उच्छ्वास सिद्ध करता है क्योंकि व्यापक बिना व्याप्त नहीं होता है। (३४)