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________________ (३५०) वह आहार सचित हो या अचित्त हो, इसी तरह मिश्र भी हो । इनके आहार में और कोई अन्तर नहीं है क्योंकि वे लगातार आहारी होते हैं। (१३३) ___ तथोक्तं प्रज्ञापनायाम्- "पुढवीकाइयस्स णं भंते केवइ कालस्स आहारढे समुप्पजइ ॥ गोअम अणु समयं अविरहिए । एवं जाव वणस्सइ काइया ।इति॥" इति आहारकत्वम् ॥२६॥ - इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना सूत्र में इस तरह कहा है कि- श्री गौतम ने महावीर प्रभु से पूछा कि- हे भगवन्त ! पृथ्वीकाय जीव कितने-कितने अन्तर में आहार लेते हैं ? श्री वीर परमात्मा ने उत्तर दिया कि- हे गौतम! वे प्रत्येक समय में अल्प भी अन्तर रहित लगातार आहार ग्रहण करते रहते हैं। ये वनस्पति काय तक पांचों स्थावर के जीवों का भी इसी तरह ही समझना।' इस तरह उन्तीसवां द्वार हुआ। आद्यमेव गुण स्थानमेकं सूक्ष्म शरीरिणाम् । अनाभोगिक मिथ्यात्ववतामेषां निरूपितम् ॥१३४॥ इति गुणाः ॥३०॥ अब गुण स्थान के विषय में कहते हैं- सर्व सूक्ष्म शरीर वाले प्रथम गुण स्थानक में ही होते हैं क्योंकि उनका अनाभोगिंक मित्थात्व होता है। (१३४) यह तीसवां द्वार कहा है। दशानामपि सूक्ष्माणां त्रयोयोगाः प्रकीर्तिताः । औदारिकस्तन्मिश्रश्च कार्मणश्चापि विग्रहे ॥१३५॥ इति योगाः ॥३१॥ अब योग के विषय में कहते हैं - दसों प्रकार के जीवों का तीन काययोग होता है, १- औदारिक, २- मिश्र औदारिक और ३- कार्मण । (१३५). यह इकत्तीसवां द्वार है। असंख्येय लोकमान नभः खंड प्रदेशकः । तुल्याः सूक्ष्माग्नि पृथ्व्यम्बुमरुतः किन्तु तत्र च १३६॥ . लोकाकाशमिताः खंडा असंख्येया अपि क्रमात् । अग्न्यादिषु भूरि भूरितर भूरितमा मताः ॥१३७॥युग्मं। अब इसके मान के विषय में कहते हैं- सूक्ष्म अग्नि काय, पृथ्वीकाय,
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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