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________________ (३४०) . युदुक्तम्..... सामग्गिअ भावाओ ववहारियरासिअप्य वेसाओ। भव्वा वि ते अणंता जे सिद्धि सुहं न पावंति ॥७६॥ अन्य स्थान पर भी कहा है कि-सामग्री के अभाव के कारण जिनका व्यवहार राशि में प्रवेश नहीं हुआ है, ऐसे मोक्ष सुख नहीं देखने वाले भव्य जीव भी अनन्त हैं। (७६) निगोदात्सूक्ष्मतो ये च निर्गता न कदाचन । . . . . निर्यास्यन्ति पुनर्जातु स्थितिस्तेषां द्वितीयिका ७७॥ .' गत काल में जो कभी भी सूक्ष्म निगोद में से बाहर नहीं आए हैं परन्तु भविष्य काल में आने वाले हैं, उनकी दूसरी अनादि सांत काय स्थिति है। (७७).... अनन्त पुदगल परावर्तमाना त्वसावपि । गतस्य कालस्यानन्त्यत् केषांचित् भाविनोऽपि च ॥८॥ यह स्थिति भी अनन्त पुदगल परावर्त जितनी है क्योंकि उनका गया हुआ काल अनन्त है और कईयों का तो भविष्य काल भी अनन्त होता है। (७८) अनादि स्थितिका न स्युपंधनन्ता निगोदिनः । तदा वक्ष्यमाण वनस्पतिकाय स्थिति क्षये ॥६॥ कृते काय परावर्ते निखिलैर्वन कायिकैः। वनस्पतीनां निर्लेपोऽनभिष्टोऽपि प्रसज्यते ॥८०॥युग्मं। इस अनंत निगोद की यदि अनादि स्थिति न हो तो वक्ष्यमाण स्वरूप वनस्पति- काय की स्थिति का क्षय होते ही सर्व वनस्पतिकायों का काय परावर्तन करने पर वनस्पति के सर्वनाश का अनभीष्ट प्रसंग खड़ा हो जाता है। (७६-८०) अनारतं किं च मुक्तिं गच्छद्भिर्भव्य देहिभिः । अचिरादेव जगति भव्याभावः प्रसज्यते ॥८१॥ . मुक्ति मार्ग व्यवच्छेदोऽप्येतच्च नेष्यते बुधैः । सन्तीति, प्रतिपत्तव्यं ततोऽनादिनिगोदिनः ॥२॥ इत्याद्यधिकं प्रज्ञापनाष्टादशपद वृत्तितोऽवसेग्रम् ॥ और भव्यात्मा सर्वदा मोक्ष में जाने वाले होने से जगत् में शीघ्र ही भव्य आत्माओं का अभाव होने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा तथा मोक्ष मार्ग भी बंद हो जायेगा । परन्तु यह सब बुद्धिमान लोग स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिए अनादि निगोदी जीव हैं ही, इस तरह स्वीकार करना पड़ेगा। (८१-८२)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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