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________________ (३३५) तथा एक भी देश में प्रदेश की वृद्धि किए बिना एक ही निगोदावगाहना में उतनी ही अवगाहना वाले अन्य निगोद भी रहते हैं। (४५) विवक्षित निगोदस्य मुक्त्वा कांश्चित् प्रदेशकान् । . आक म्य चापराने तैरवस्थितै र्निगोदकै: ॥४६॥ विवक्षितममंच भिस्तदुष्कष्ट पदं किल । एको निष्पाद्यते गोलो ह्य संख्येय निगोदकाः ॥४७॥ युग्मं। और इस विवक्षित निगोद के कितने प्रदेश छोड़कर और दूसरे प्रदेशों को अवगाहन कर रहे असंख्य निगोद वाले गोले होते हैं तथा विवक्षित उत्कृष्ट पद को नहीं छोड़ते, ऐसे असंख्य निगोद का एक गोलाकार बनता है। (४६-४७) तथोक्तम्- . . ___.. उक्कोसपयममोत्तुं निगोअ ओगाहणाए सव्वत्तो । निप्पाइजइ गोलो पएसपरिवुदिढ हाणीहिं ॥४८॥ अन्यत्र कहा है कि- उत्कृष्ट पद को नहीं छोड़ते निगोदों की अवगाहना में सर्वत्र प्रदेशों की हानि- वृद्धि के कारण अनेक गोले निष्पन्न (समाप्त) होते हैं। (४८) . : अथ गोलकमाश्रित्यैतमेव प्रोक्त लक्षमणम् । . अन्यो निष्पद्यते गोलो मुक्त्वोत्कृष्टपदं हि तत् ॥४६॥ और फिर इसी उक्त लक्षण वाले गोले के आश्रित दूसरे गोले उक्त उत्कृष्ट पद छोड़कर निष्पन्न होते हैं। (४६) . निरुक्त गोलकोत्कृष्ट पदास्पर्शिनिगोदके । परिकल्प्योत्कृष्ट पदमन्य गोलक कल्पनात् ॥५०॥ ... 'उक्त गोले के उत्कृष्ट पद को नहीं स्पर्श करते निगोद में अन्य गोले की कल्पना पूर्वक दूसरे उत्कृष्ट पद की कल्पना करना। (५०) इत्ये कै क निगोदावगाहनाप्रमिते किल । ... क्षेत्रे भवति निष्पत्तिरेककगोलकस्य वै ॥५१॥ इसी तरह एक-एक निगोद की अवगाहना प्रमाण क्षेत्र में एक-एक गोला निष्पन्न होता हैं। (५१) ... विवक्षित निगोदावगाहनायास्तु येऽधिकाः । निगोदांशास्तत्प्रदेशहानिस्थित्या व्यवस्थिताः ॥५२॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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