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________________ (३३१) एव विवक्षा वशतो जीवा भवन्त्यनेकधा । जीवानामोघतः स्थानं लोकः सर्वोऽप्युदीरितः ॥२३॥ द्वाराणि पर्याप्त्यादीनि सर्वाण्यप्यविशेषतः । सम्भवन्त्योघतो जीवे विज्ञेयानि यथागमम् ॥२४॥ __ इति सामान्यतः संसारि जीव निरूपणंम् ॥ ___ इस तरह विवक्षा करने पर जीव के अनेक भेद होते हैं । इन जीवों का स्थान ओघ से समस्त लोक है और इसके विषय में पर्याप्त आदि सर्व द्वार ओघ से होता है, वह आगम में कहे अनुसार जानना। (२३-२४) इस तरह संसारी जीव का सामान्य स्वरूप कहा है। संसारिणो द्विधोक्ता प्राक् त्रस स्थावर भेदतः । स्थावरास्तत्र पृथ्व्यम्बुतेजोवायुमहीरूहः ॥२५॥ पंचामी स्थावराः स्थावराख्य कर्मोदयात्किल । हुताशमरूतौ तत्र जिनै रुक्तौ गति त्रसौ ॥२६॥ . इति जीवाभिगमाभिप्रायेण ॥ पहले त्रस और स्थावर दो प्रकार के संसारी जीव कहे हैं। उसमें पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वाउकाय और वनस्पतिकाय- ये पांच स्थावर हैं । ये पांचों स्थावर नाम कर्म के उदय से होते हैं इसलिए ये स्थावर कहे हैं । उनमें भी तेउकाय और वाउकाय को जिनेश्वर भगवान् ने गति की अपेक्षा से त्रस कहा है । (२५-२६) ... यह अभिप्राय श्री जीवाभिगम सूत्र की अपेक्षा से कहा है। : आचारांग नियुक्ति वृव्यभिप्रायेण तु- "दुविहेत्यादि। बसा एव जीवाः त्रसजीवाः लब्धित्रसाः गतित्रसाश्च । तेजोवायु लब्ध्या त्रसौ इति ।अन्ये च नारकादयः गतित्रसाः। इति तात्पर्यम् ॥" - आचारांग सूत्र की नियुक्ति वृत्ति के अभिप्राय से तो जो जीव त्रस हो वही त्रस कहलाते हैं । इसके गतित्रस और लब्धित्रस दो भेद होते हैं। तेउकाय और वाउकाय ये दोनों इस मत से लब्धि त्रस हैं और नरकी आदि जीव गति त्रस कहलाते हैं। ऐसा भावार्थ है। वनस्पतिश्च प्रत्येकः साधारण इति द्विधा । . सर्वेऽमी बादराः सूक्ष्मा बिना प्रत्येक भूरूहम् ॥२७॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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