SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३२६) विश्वाश्चर्यदं कीर्ति कीर्ति विजय श्रीवाचकेन्दान्तिषद्राजश्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किाल तत्रनिश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, सर्गों निर्गलितार्थ सार्थ सुभगः पूर्णस्तृतीयः सुखम् ॥१४१८ ॥ ॥ इति श्री लोक प्रकाशे तृतीयः सर्गः समाप्तः ॥ जगत् के लोगों को आश्चर्य प्राप्त कराने वाली कीर्ति के सदृश श्री कीर्ति विजय उपाध्याय के शिष्य और माता राजश्री तथा पिता तेजपाल के पुत्र श्री विनय विजयं उपाध्याय ने जगत् के निश्चय तत्त्वों को प्रकाशित करने में दीपक के समान इस काव्य रूप ग्रन्थ की रचना की है। उसके अन्दर से निकलते अर्थों के समूह से मनोहरू यह तीसरा सर्ग सम्पूर्ण हुआ। (१४१८) ॥ इस तरह श्री लोक प्रकाश में तीसरां सर्ग समाप्त हुआ । . "
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy