________________
( ३२४ )
कहलाती है । जैसे कि सिंधव कहने से अश्व या लवण - नमक ऐसा संशय होता है। (१४०६)
व्याकृता तु भवेय भाषा प्रकटार्थाभिधारिनी ।
अव्याकृता गंभीरार्थाथवाऽव्यक्तक्षरांचिता ॥ १४०७ ॥
जिससे स्फुट अर्थ निकलता हो वह भाषा व्याकृत व्यवहार भाषा है और गंभीर व अव्यक्त अक्षर वाली जो भाषा है वह अव्याकृत व्यवहार भाषा कहलाती. है। (१४०७)
आद्यास्तिस्त्रो दशविधास्तुर्या द्वादशधा पुनः ।
द्विचत्वारिंशदित्येवं भाषा भेदा जिनैः स्मृताः ॥ १४०८ ॥
इस तरह पहले तीन के दस-दस भेद हैं और चौथे के बारह मिलाकर कुल बयालीस भाषा भेद श्री जिनेश्वर भगवान् ने कहें हैं। (१४०८)
स्तोकाः सत्यगिरः शेषस्त्रयोऽसंख्य गुणः क्रमात् । अभाषकाश्चतुर्भ्योऽपि स्युरनन्तगुणाधिकाः ॥ १४०६॥ इति योगा ॥३१॥
सत्यवादी सबसे थोड़े होते हैं। शेष तीन वर्ग के अनुक्रम से एक एक से असंख्य गुना होते हैं और उन चार वर्ग वालों से अनन्त गुणा नहीं बोलने वाले होते हैं। (१४०६)
इस तरह इकत्तीसवां द्वार योग का पूर्ण हुआ ।
के के जीवाः कियन्तः स्युरिति दृष्टान्त पूर्वकम् । निरूपणं यत्तन्मानमित्यत्र परिकीर्तितम् ॥१४१०॥
कौन-कौन से जीव कितने-कितने हैं, इसका दृष्टान्तपूर्वक निरूपण करना । इसे मान कहते हैं । यह बत्तीसवां द्वार है। (१४१० )
परस्पर
कतिय सजातीयव्यपेक्षया I वक्ष्यते याल्पबहुता सात्र ज्ञेया कनीयसी ॥१४११॥ परस्पर कई सजातियों की अपेक्षा से अल्प बहुत्व कहा है, द्वार है। (१४११)
वह
भूयांसो दिशिकस्यां के जीवाः कस्या च केऽल्पकाः । एवं रूपाल्य बहुता विज्ञेया दिगपेक्षया ॥ १४१२ ॥
'तैंतीसवां