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________________ (२६७) इस सम्बन्ध में भाष्य में कहा है कि- निश्चय नय के मतानुसार आवरणों के क्षय समय में ही केवल ज्ञान उत्पन्न होता है और व्यवहार नय के मतानुसार उसके बाद के समय में केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। (१२४३) इस तरह से बारहवां गुण स्थानक है। - योगो नामात्मानो वीर्य तत्स्याल्लब्धि विशेषतः । वीर्यान्तराय क्षपण क्षयोपशम सम्भवात् ॥१२४४॥ आत्म की वीर्य-शक्ति - इसका नाम योग है । इस योग वीर्यन्तराय का क्षय और क्षयोपशम होने से अमुक प्रकार की लब्धि प्राप्त होती हैं। (१२४४) योगो द्विधा सकरणोऽकरणश्चेति कीर्त्तितः ।। तत्र के वलिनो ज्ञेयदृश्येष्वखिलं वस्तुषु ॥१२४५॥ उपयुंजानस्य किल के वले ज्ञानदर्शने । योऽसावप्रतिघों वीर्य विशेषोऽकरणः स तु ॥१२४६॥ युग्मं। वह योग सकरण और अकरण इस तरह दो प्रकार का कहा है। उसमें केवली को अखिल ज्ञेय और दृश्य पदार्थों में केवल ज्ञान और केवल दर्शन का उपयोग करने से जो अमुक प्रकार की अप्रतिहत लब्धि होती है उसका नाम सकरण योग है । (१२४५- १२४६) .. अयं च नात्राधिकृतो योगः सकरणस्तु यः । मनोवाक्काय करण हेतुकोऽधिकृतोऽत्र सः ॥१२४७॥ यहां अकरण योग का अधिकार नहीं है । यहां तो सकरण योग का अधिकार है, जो कि मन-वचन और काया के कारण का हेतुभूत है । (१२४७) केवल्युपेतस्तैयोगैः सयोगी के वली भवेत् । सयोगिकेवल्याख्यं स्यात् गुणस्थानं च तस्य यत् ।।१२४८॥ यह सरकण योग वाला जो केवली हो वह सयोगी केवली कहलाता है और उसका गुण स्थान सयोगी केवली गुण स्थान कहलाता है । (१२४८) मनोवाक्कायजाश्चैवं योगाः केवलिनोऽपि हि । भवन्ति कायिक स्तत्र गमनागमनादिषु ॥१२४६॥ वाचिको यत मानानां जिनानां देशनादिषु । भवत्येवं मनोयोगोऽप्येषां विश्वोपकारिणाम् ॥१२५०॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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