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पूर्वोक्त उपशमिक समकित प्राप्त हुआ हो, छठे अथवा शुद्ध पुंज के उदय के कारण क्षयोपशमिक समकित प्राप्त हुआ हो फिर भी, अथवा दर्शन सप्तक क्षीण होने से क्षायिक समकित प्राप्त हुआ हो, सावध विरति मोक्ष दायक है । इस प्रकार की समझदारी होते हए भी अप्रत्याख्यान नाम के कषाय के उदय के कारण रुकावट होने से प्राणी देश से अर्थात् थोड़ी भी विरति करने में अथवा पालन करने में समर्थ नहीं होता है। (११५८-११६०)
इस तरह यह चौथा गुण स्थान है। स्थूल सावध विरमाद्यो देश विरतिं श्रेयत् । स देश विरतस्तस्य गुणस्थानं तदुच्यते ॥११६१॥ .
स्थूल सावद्य से त्यागकर जो प्राणी अल्प भी विरति स्वीकार करता है वह . देश विरति कहलाता है और इसका गुण स्थान भी वही है । (११६१)
सर्व सावध विरतिं जानतोऽप्यस्य मुक्तिदाम् । . . . तदादृतौ प्रत्याख्यानावरणा यान्ति विघ्नताम् ॥११६२॥
इति पंचमम् ॥ . .. सर्व सावध विरति से मोक्ष की प्राप्ति होती है - इस तरह जानते हुए भी प्रत्याख्यान रूप आवरणों का कारण ही उसे स्वीकार नहीं करने में विघ्नभूत होता है। (११६२)
यह पांचवा गुण स्थान कहा है। संयतस्सर्व सावद्य योगेभ्यो विरतिऽपि यः । कषाय निद्रा विकथादि प्रमादैः प्रमाद्यति ॥११६३॥ स प्रमत्तः संयतोऽस्य प्रमत्त संयताभिधम् । गुणस्थानं प्राक्तनेभ्यः स्याद्विशुद्धि प्रकर्षभृत् ॥११६४॥ वक्ष्यमाणेभ्यश्च तेभ्यः स्याद्विशुद्धचपकर्षभूत । . शुद्धि प्रकर्षापकर्ष वेपं भाव्यौ परेष्वपि ॥११६५॥
__ त्रिभिः विशेषकं ॥ इति षष्ठम् ॥