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________________ (२६३) शुद्ध नयः पुनः अनाकारमेव संगीरते दर्शनम् । आकारवच्च विज्ञानम्। आकारश्च विशेष निर्देशो भावस्य पर्यायतः प्रोक्तस्य च दर्शन समनन्तरमेव संपद्यते अन्तर्मुहूर्त काल भावित्वात् ।आकार परिज्ञानाच्च प्राक् आलोचनं अवश्यं अभ्युपेयम् । अन्यथा प्रथमतः एव पश्यतः किमपि इदमिति कुतः अव्यक्त बोधनं स्यात्। यदि च आलोचनमंतरेण आकार परिज्ञानोत्पाद एवं पुंसः स्यात् तथा सति एक समय मात्रेण स्तंभ कुंभादीन् विशेषान् गृहणीयात् इति ।" तत्वार्थ वृत्ति में भी कहा है कि- 'औपचारिक नय के अनुसार ज्ञान प्रकार ही दर्शन कहलाता है और शुद्ध नय के अनुसार अनाकार दर्शन कहलाता है तथा विज्ञान आकार वाला होता है तथा आकार अर्थात् पर्याय से कहे भाव का विशेष निर्देश है और उस दर्शन के बाद में तुरन्त ही होता है क्योंकि इसका स्थितिकाल अन्तर्मुहूर्त ही होता है। तथा आकार परिज्ञान की पूर्व में आलोचना-विचार तो अवश्य स्वीकार करना ही पड़ता है, क्योंकि यदि स्वीकार न करें तो प्रथम दर्शन समय में ही 'यह कुछ है' ऐसा अव्यक्त बोध कहां से होता? एवं यदि विचार किए बिना ही मनुष्य को आकार के ज्ञान की उत्पत्ति होती तो एक ही समय में स्तंभ कुंभ आदि विशेषों को ग्रहण करता।' सामान्येनवा बोधो यश्चक्षुषा जायतेऽङ्गिनाम् । ... तच्चक्षु दर्शनं प्राहुस्तत्स्यादा चतुरिन्द्रियात् ॥१०५४॥ प्राणी को चक्षु द्वारा सामान्यतः ज्ञान जो होता है उसे चक्षु दर्शन कहते हैं और वह चतुरिन्द्रय जीवों से प्रारम्भ से होता हैं। (१०५४) . .. यः सामान्यावबोधः स्याच्चक्षुर्वर्जापरेन्द्रियैः । - अचक्षुर्दर्शनं तत्स्यात् सर्वेषामपि देहिनाम् ॥१०५५॥ ... तथा चक्षु के अलावा अन्य इन्द्रियों से जो सामान्य अवबोध होता है वह अचक्षुदर्शन कहलाता है और वह सर्व प्राणियों को होता है। (१०५५) . तथोक्तंतत्त्वार्थवृत्तौ-"चक्षुर्दर्शनमित्यादि।चक्षुषादर्शन उपलब्धिःसामान्यार्थ ग्रहणम्।स्कन्धावारोपयोगवत्तदहर्जातबालदारकनयनोपलब्धिवत्वा व्युत्पन्नस्यापि । अचक्षुर्दर्शनं शेषेन्द्रियैः श्रोत्रादिभिः सामान्यार्थ ग्रहणम् ॥" इति। - इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थ सूत्र वृत्ति में कहा है कि- 'चक्षु दर्शन अर्थात् चक्षु द्वारा दर्शन- उपलब्धि और उस महा विद्वान् को भी छावणी के दर्शन के समान अथवा तुरन्त के उत्पन्न हुए बालक की दृष्टि के समान सामान्य पदार्थ के ग्रहण
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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