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________________ (२२६) अथवा नाना प्रकार की अवस्था वाले मनोद्रव्य के पर्याय का जो ज्ञान है वह मनः . पर्यव ज्ञान कहलाता है । (१८६) स्याद जुधी विपुल धी लक्षण स्वामि भेदतः । तद् द्वि भेदं संयतस्याप्रमत्तस्यर्द्धि शालिनः ॥८५२॥ भिन्न लक्षण और भिन्न स्वामी को लेकर इसके ऋजुमति और विपुलमतिइस तरह दो भेद होते हैं और यह अप्रमत्त और लब्धिशाली संयमी मुनि को होता है। (८५२) अनेन चिन्तित: कुंभा इति सामान्य ग्राहिणी । मनोद्रव्य परिच्छित्तिर्यस्या सावृजुधीः श्रुतः ॥८५३॥ अनेन चिन्तितः कुम्भ स सौवर्णः स माथुरः । इयत्प्रमाणोऽद्यतनः पीतवर्णः सदाकृतिः ॥८५४॥ एवं विशेष विज्ञाने मतिर्यस्य पटीयसी । ज्ञेयोऽयं विपुलमतिर्मनः पर्याय लब्धिमान् ॥६५५॥ - इसने कुंभ धारण किया है- इतना सामान्य ज्ञान ग्रहण करने वाले मनो द्रव्य की परिच्छिति (मनः पर्यव ज्ञान) जिसको हो वह ऋजुमति कहलाता है। इसने कुंभ को धारण किया है, यह सुवर्ण का है, मथुरा का बना है; इतना बड़ा है, आज का बना है, पीले रंग का और सुन्दर आकृति वाला धारण किया है- इस तरह विशेष ज्ञान ग्रहण करने वाली बुद्धि जिसको हो वह विपुलमति मनः पर्यव ज्ञान वाला होता है। (८५३-८५५) ननु च...... अवधिश्च मनः पर्यवश्चोभे अप्यतीन्द्रिये । रूपिद्रव्य विषये च भेदस्तदिह कोऽनयोः ।।८५६॥ यहां शंका करते हैं कि अवधि और मनः पर्यव, दोनों ज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान हैं और इन दोनों का विषय भी एक ही-रूपी द्रव्य है तो फिर इनके बीच में भेद क्या रहा ? किसलिए दो भेद अलग कहे ? (८५६) अत्रोच्यतेऽवधिज्ञानमुत्कर्षात्सर्वलोक वित् । - संयतासंयतनर तिर्यस्वामिक मीरितम् ॥८५७॥ अन्य द्विशदमेतस्माद् बहु पर्याय वेदनात् । अप्रमत्त संयति कलभ्यं नृक्षेत्र गोचरम् ॥८५८॥ .
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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