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________________ (२२४) योजनानां सहस्राणि संख्ये यान्यप्यसंख्यशः। यावल्लोकमपि दृष्ट्वा पतति प्रतिपाति तत् ॥८४६॥ . प्रमादेन पतत्येतद् भवान्तराश्रयेण वा । यथाश्रुत स्वरूपं च वक्ष्येऽथा प्रतिपातिनः ॥८४७॥ संख्य असंख्य सहस्र बद्ध योजन पर्यन्त और आखिर लोकाकाश तक भी देखकर जो पुनः वापिस गिरता है वह प्रतिपात अवधि ज्ञान है । यह प्रतिपात अवधि ज्ञान प्रमाद के कारण से अथवा अन्य जन्म धारण करने से गिरता है। (८४६-८४७) यत्प्रदेशमलोकस्य दृष्टु मेकमपि क्षमम् ।.. तत्स्याद प्रतिपात्येव केवलं तदनन्तरम् ८४८॥ अब अप्रतिपात अवधि ज्ञान का शास्त्रोक्त स्वरूप कहते हैं । जिसमें अलोक का एक भी प्रदेश देखने की सामर्थ्य है वह अप्रतिपात अवधि ज्ञान है। वह ज्ञान विद्यमान होता है, इसमें ही केवल ज्ञान प्राप्त होता है । (८४८) हीयमान प्रतिपातिनोश्च अयं विशेषः . ... प्रतिपाति हि निर्मूलं विध्यायत्ये कहेलया । हीयमानं पुनः ह्रासमुपयाति शनैः-शनैः ॥८४६॥ हीयमान (क्षीण) और प्रतिपात के बीच में अन्तर है । वह इस प्रकारप्रतिपात सर्वथा निर्मल होकर शम हो जाता है जबकि हीयमान धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है। (८४६) "इदं कर्म ग्रन्थ वृत्यभिप्रायेण ॥तत्वार्थ भाष्ये तुअनवस्थिताव-स्थिताख्ययो अन्त्य भेदयोः एवं स्वरूपम् उक्तम्- अनवस्थितं हीयते वर्धते च वर्धते हीयते च प्रतिपतति च उत्पद्यते च इति पुनः पुनः उर्मिवत्॥अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति ततो न प्रतिपतति आ केवल प्राप्तेरवतिष्टते। आभवक्षयाद्वा- ज्यात्यन्तर स्थायि वा भवति लिंगवत् ।यथा लिंगं पुरुषादिवेदंइह जन्मनि उपादाय जन्मान्तरं याति जन्तुः तथा अवधि ज्ञानमपि इति भावः ॥" यह अभिप्रायः कर्मग्रन्थ की वृत्ति अनुसार है जबकि तत्त्वार्थ भाष्य में अन्य तरह से कहा है । उसमें तो अनवस्थित और अवस्थित- इस तरह दो प्रकार से कहा है। घटता है और बढ़ता है और वापिस घट जाये और जल के कल्लोल के समान गिर जाये, चढ़े और फिर गिर जाये- ऐसे स्वभाव वाला अनवस्थित जितने क्षेत्र
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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