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________________ (२११) त्रयोदशं त्वंगरूपमंगबाह्यं चतुर्दशम् । प्रायो व्यक्ता अमी भेदास्तथापि किंचिदुच्यते ॥७७८॥ १- अक्षर श्रुत,२- अनक्षर श्रुत, ३- संज्ञि श्रुत,४- असंज्ञि श्रुत,५- सम्यग् श्रुत, ६- मिथ्या श्रुत, ७- सादि श्रुत,८- अनादि श्रुत, ६- सान्त श्रुत, १०- अनन्त श्रुत, ११- गम श्रुत, १२- अगम श्रुत, १३- अंगरूप श्रुत और १४- अंग बाह्य श्रुत, ये चौदह भेद प्रायः व्यक्त हैं तथापि इनके सम्बन्ध में कुछ कहते हैं । (७७५ से ७७८) तत्राक्षरं त्रिधा संज्ञाव्यंजनलब्धि भेदतः। तत्र संज्ञाक्षरमेता लिपयोऽष्टादशोदिताः ॥७७६॥ उसमें प्रथम अक्षर श्रुत तीन प्रकार का है- संज्ञा, व्यंजन और लब्धि इसमें - संज्ञाक्षर है । वह अठारह प्रकार की लिपि रूप है । (७७६) वह इस प्रकारतथापि...... हंस लिवी भूअलिवी जख्खा तह रख्खसीय बोधव्वा। . उड्डी जवणी तुरक्की कीरा दविडी य सिंधविआ ॥१॥ मालविणी नडि नागरी लाडलिवी पारसीय बोधव्वा । तह अनिमित्तीअ लिवी चाणक्की मूलदेवी य ॥२॥ . -हंस लिपि, २- भूत लिपि, ३- यक्ष लिपि, ४- राक्षसी लिपि,५- उड्डी लिपि, ६- यवनी लिपि, ७- तुर्की लिपि,८- कीरा लिपि,६- द्राविड लिपि, १०सिंधी लिपि, ११- मालवी लिपि, १२- नडी लिपि, १३- नागरी लिपि, १४- लाट लिपि, १५- पारसी लिपि, १६- अनियमित लिपि, १७- चाणक्य लिपि, १८मूलदेवी लिपि। अर्थात; ये अठारह प्रकार की लिखावट हैं । (१-२) .. अकारादिहकारान्तं भवति व्यंजनाक्षरम् । अज्ञानात्मकमप्येतद् द्वयं स्यात् श्रुत कारणम् ॥७८०॥ ततः श्रुतज्ञान तया प्रज्ञप्तं परमर्षिभिः । लब्ध्यक्षरं त्वक्षरोपलब्धिरर्थावबोधिका ॥७८१॥ अकार से लेकर हकार तक व्यंजनाक्षर हैं । संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर दोनों हों और अज्ञानात्मक हों, फिर भी श्रुतज्ञान का कारण रूप हैं। तथा इसके लिए पूर्वाचार्यों ने इसको श्रुत ज्ञान रूप में प्रसिद्ध किया है । तथा अर्थ का ज्ञान
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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