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________________ (१६८) अथवा व्यंजन, अवग्रह दर्शन आदि के विषय में महाभाष्य के अन्दर जो मत दिखाया है, उसके अनुसार मानना । यहां तो हमने प्रसंग लेकर इतना कहा है। अधिक कुछ भी नहीं कहना। आवल्यसंख्येय भागो व्यंजनावग्रहे भवेत्। कालमानं लघु ज्येष्ठमानं प्राणपृथक्त्वकम् ॥७०७॥ इस 'व्यंजनावग्रह' में जघन्य एक आवली के असंख्यवें भाग जितना काल होता है और उत्कृष्ट दो से नौ प्राण अर्थात् श्वासोच्छ्वास तक काल लमता है। (७०७) स चतुर्धा श्रोत्र जिव्हा घ्राण स्पर्शन सम्भवः। अप्राप्त कारि भावात्स्यान चक्षुर्मनसोरसौ ॥७०८॥ व्यंजनावग्रह चार प्रकार का होता है- १- श्रोत्र से, २.- जीभ से, ३. घ्राण अर्थात् नासिका से और ४- स्पर्श से। चक्षु या मंन से नहीं होता क्योंकि दोनों प्राप्तकारी नहीं हैं- अप्राप्तकारी हैं। (७०८) . शव्दादेर्यः परिच्छेदो मनास्पष्टतरो भवेत् । . किं चिदित्यात्मकः सोऽयमर्थावग्रह उच्यते ॥७०६॥ कालतोऽर्थावग्रहस्तु स्यादेकसमयात्मकः । निश्चयाद्वय वहारातु स स्यादान्तर्मुहूर्तिकः ॥७१०॥ यह कुछ है, इस प्रकार से शब्द आदि अधिक स्पष्टता से समझ में आता है वह अर्थावग्रह कहलाता है । इसका काल निश्चय नय से एक समय का है और व्यवहार नय से अन्तर्मुहूर्त का होता है । (७०६-७१०) . तस्यैवावगृहीतस्य धर्मान्वेषणरूपिका । ईहाभवेत्काल मानमस्या अन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥७११॥ . यह अवगृहीत हुआ कि तुरन्त ही इसके धर्म की खोज करना, उसका नाम . 'इहा' है । इसका कालमान अन्तर्मुहूर्त का है । (७११) अथेहितस्य तस्येदमिदमेवेति निश्चयः । अवायो मानयस्यापि स्मृतमन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥७१२॥ . इस इहा के बाद 'यह तो यही है' इनका निश्चय हो, उसका नाम अवाय है। इसका कालमान भी अन्तर्मुहूर्त का है । (७१२)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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