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(१६६) पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक में अथवा व्यन्तर या ज्योतिषी में नहीं आता है, या तो मनुष्य जन्म में आता है या तो सौधर्म आदि देवलोक में उत्पन्न होता है।' - सर्वार्थ सिद्ध देवत्वे सर्वार्थ सिद्ध नाकिनाम् ।।
न स्यः भूतभविष्यन्ति सन्ति पंचाष्ट च स्फुटम् ॥५७१॥
सर्वार्थ सिद्ध के देवों को सर्वार्थ सिद्ध के जन्म में इन्द्रिय अतीत काल में नहीं होती तथा भविष्य काल में भी नहीं होने वाली हैं । केवल पांच और आठ वर्तमान काल में होती हैं । (५७१)
तेषामन्य गतित्वे चातीतानि स्युरनन्तशः । . नैव सन्ति भविष्यन्ति नृगतावष्ट पंच च ॥५७२॥
- वे अन्य जन्म लेते हैं तब अनन्त इन्द्रियां अतीत काल में हो जाती हैं, परन्तु । वर्तमान काल में सर्वथा नहीं होती, केवल भावी मनुष्य गति के अन्दर आठ और पांच होने वाली होती हैं । (५७२) .
संज्ञि पंचेन्द्रियाणां यत् स्मृत्यादि ज्ञान साधनम् । .. मनो नोइन्द्रियं तच्च द्विविधं द्रव्य भावतः ॥५७३॥
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की स्मृति आदि ज्ञान का साधन रूप जो मन है वह नो इन्द्रिय कहलाता है। उसके १- द्रव्य से और २- भाव से दो भेद हैं । (५७३)
तत्र च -- मनः पर्याप्त्यभिधाननाम कर्मोदयादिह। मनो योग्य वर्गणा नामादाय दलिकान्यलम् ॥५७४॥ मनस्त्वेनापादितानि जन्तुना द्रव्य मानसम् । जिनैरुचे तथा चाह नन्द्यध्ययन चूर्णि कृत् ॥५७५॥ युग्मं।
मन पर्याप्ति नामक नाम कर्म के उदय होने से मनोयोग्य वर्गणा के दलसमुदाय लेकर परिणाम वाला जो मन है वह द्रव्य मन है । ऐसा सर्वज्ञ जिन देव ने कहा है तथा नंदी सूत्र की चूर्णि में कहा है । (५७४-५७५) ... "मण पजत्ति नाम कर्मोदयतो जोग्गे मणोदव्वेधेत्तुं मणत्तेण परिणमि या द्रव्या द्रव्यमणो भन्नइ । इति॥"
अर्थात् मन पर्याप्त नाम कर्म के उदय से योग्य मनो द्रव्य लेकर जो मन रूप परिणाम आता है वह द्रव्यमन कहलाता है । तथा
मनो द्रव्यावलम्बेन मनः परिणतिस्तु या । जन्तोः भावमनस्तत्स्यात्तथोक्तं पूर्व सूरिभिः ॥५७६॥