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________________ (१६३) दिव्य प्रभाव द्वारा वह अनेक लाख योजन के माप वाला विमान सम्पूर्ण बहरा हो जाता है।' इस उल्लेख से 'बारह योजन दूर से आया शब्द किसी को सुनने में आ सकता है। परन्तु विशेष दूर का शब्द नहीं सुना जाता है । तो फिर एक स्थान पर बजा हुआ घंटे का शब्द सर्वत्र किस तरह सुना जाता है ? इस शंका का समाधान हो गया कि सर्वत्र दिव्य प्रभाव के कारण तथा विशेष प्रकार की प्रतिध्वनि होने के कारण इसमें पूर्वोक्त दोष संभव नहीं रहता।' । अब चक्षु इन्द्रिय के विषय में कहते हैं - - अपर च-इगवीसं खलु लखा चउत्तीसं एव तह सहस्साई। तह पंचसया भणिया सत्तत्तीसाय अइरित्ता ॥ इति नयण विसयमाणं प्रखरदीवट्ठ वासिमणु आणं । पुषेण य अवरेण य पिहं पिहं होइ नायव्वं ॥५३८॥ पुष्करावर्त द्वीप में रहने वाले मनुष्यों की दृष्टि का विषय मान इक्कीस लाख चौतीस हजार पंच सौ सैंतीस (२१३४५३७) योजन होता है। इसलिए आगे से आगे पूर्व पश्चिम द्वीपों में पूर्व से पूर्व के द्वीप से अधिक होता है । (५३८) ५. एव च - सप्रागुक्तोऽक्षिविषयो न विसंवदते कथम् । . अत्रे तत्सूत्र तात्पर्य व्याचचक्षे बुधैरिदम् ॥५३६॥ । परन्तु जो कथन पूर्व में कह गये हैं, इसके साथ में उसका भाव मिलता • नहीं है, इसलिये ज्ञानी पुरुष विसंवाद दूर करने के लिए सूत्र भावार्थ समझाते हैं । (५३६) . लक्षयोजनमानो दृविषयः परमस्तुयः । अभास्वरं पर्वतादिवस्त्वपेक्ष्य स निश्चितः ॥५४०॥ स्याद्भास्वरं तु सूर्यादिवस्त्व पेक्ष्याधिकोऽपि यः । व्याख्यानतो विशेषार्थ प्रतिपत्तिरियं किल ॥५४१॥ इदं विशेषावश्यकेऽर्थतः ॥ चक्षु के उत्कृष्ट विषय का माप जो पूर्व में एक लाख योजन कहा है, वह पर्वत आदि तेज रहित वस्तु की अपेक्षा से कहा है। परन्तु सूर्य आदि तेजस्वी वस्तु की अपेक्षा से तो इस विषय का मान अधिक भी हो सकता है। विशेषावश्यक सूत्र में भी इस भावार्थ का कथन किया है । (५४०-५४१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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