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अपने-अपने शरीर के विस्तार अनुसार जीभ इन्द्रिय होती है । उनकी अन्तरंग निर्वत्ति रूप जीभ इन्द्रिय की चौड़ाई मान उत्सेध-अंगुल प्रमाण से निकालें आए तो वह चौड़ाई बहुत अल्प आती है । (५०३-५०४). ... न व्याप्नुयात्सर्व जिव्हां ततोऽति विदितोऽनया ।
सर्वात्मना रसज्ञान व्यवहारो न सिद्धयति ॥५०५॥
इसलिए इसी प्रकार से रस ज्ञान व्यवहार सब प्राणियों को जीभ का नहीं होता और इसलिए ही यह सर्व अंश से सिद्ध नहीं होता है । (५०५). ..
गन्धादि व्यवहारोऽपि भावनीयो दिशा नया ।। तत आत्मांगुलेनैव पृथुत्वं रसनादिषु ॥५०६॥ . .
गंध आदि के ज्ञान का व्यवहार भी इसी तरह से भाव.वाला है । इसलिए सिद्ध होता है कि जीभ आदि इन्द्रियों की चौड़ाई आत्मांगुल के सिवाय अन्य किसी माप से नहीं होती है । (५०६) .
जघन्यतोऽक्षिवर्जाण्यंगुलासंख्येय भागतः । गृह्णन्ति विषयं चक्षुस्त्वंगुल संख्य भागतः ॥५०७॥
चक्षु के अलावा शेष इन्द्रिय जघन्यतः अंगुल के .असंख्यातवें भाग जितनी दूर से अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं। चक्षु स्वयं अंगुल के संख्यातवें भाग जितनी दूर से अपना विषय ग्रहण करता है । (५०७) अयं भावः
प्राप्यार्थावच्छेदकत्वात् श्रवणादीनि जानते ।
अंगुला संख्येय भागदपि शब्दादिमागतम् ॥५०८॥
इसका भावार्थ इस तरह है- श्रवण आदि. इन्द्रियां अपने प्राप्त अर्थ की जानकारी होने से अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी दूर से भी आए हुए शब्द आदि को जान सकती हैं । (५०८)
चतुर्णामत एवैषां व्यंजनावग्रहो भवेत् । दृष्टान्तान्नव्यमृत्पात्रशयितोत्बोधनात्मकात् ॥५०६॥
इसी तरह ही चार इन्द्रियों को व्यंजना अवग्रह का ज्ञान होता है। इसके ऊपर दो दृष्टान्त देते हैं- १- नया कोरा मृत्तिका पात्र, २- निद्रित को जागृत करने का (जिससे बात की सत्यता का निश्चय होता है) । (५०६)