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अत्रोच्यते - त्वगिन्द्रियस्य विषयः स्पर्शाः शीतादयो यथा । चक्षुषो रूपमेवं तु विषयो नास्य वेदना ॥ ४६२ ॥ दुःखानुभवरूपा सा तां त्वात्मानुभवत्ययम् । सकलेनापि देहेन ज्वरादि वेदनामिव ॥४६३ ॥ इस शंका का समाधान इस तरह करते हैं कि- जैसे चक्षु का विषय रूप है वैसे ही स्पर्शेन्द्रिय का विषय शीत उष्ण आदि स्पर्श है, उसका विषय वेदना नहीं है। वेदना तो दुःख का अनुभव रूप है और इस वेदना को यह आत्मा ज्वर आदि व्याधि की वेदना के समान अखिल स्वरूप में अनुभव करता है । (४६२-४६३) अथ शीतल पानीय पानेऽन्तर्वेद्यते कथम् । शीत स्पर्शोऽन्तरा कौतस्कुतं स्यात्स्पर्शनेन्द्रियम् ॥४६४॥
अत्रोच्यते - सर्वत्रांग प्रदेशान्तर्वर्त्ति त्वगिन्द्रियं किंल । भवेदेवेति मन्तव्यं पूर्वर्षि: सम्प्रदायतः ॥४६५॥
अब यहां ऐसी शंका करते हैं कि- शीतल जल पीने के समय अन्दर शीतल स्पर्श कहां से होता है ? वहां क्या बीच में स्पर्शेन्द्रिय आकर खड़ी रहती है ? इस शंका का समाधान पूर्वाचार्य इस तरह कह गये हैं कि शरीर प्रदेश के अन्दर सर्वत्र स्पर्शेन्द्रिय रहती हैं इस कारण से शीतलता का अनुभव होता है (४६४-४६५)
यदाह प्रज्ञापना मूल टीकाकार:- "सर्व प्रदेश पर्यन्त वर्तित्वात्ततोऽभ्यन्तरतोऽपि शुषिरस्योपरि त्वगिन्द्रियस्स भावादुपपद्यतेऽन्तरपि शीत स्पर्श वेदनानुभव इति ॥ " 'प्रज्ञापना सूत्र के मूल टीकाकार ने इस सम्बन्ध में कहा है कि- स्पर्शेन्द्रिय सर्व प्रदेशों के पर्यन्त तक रहने से शरीर के अन्दर के खाली विभाग में भी इसका सद्भाव होता है, इसलिए अन्दर भी शीत स्पर्श का अनुभव होना ही चाहिए ।"
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ततोऽन्तरेऽपि शुषिरपर्यन्तेऽस्ति त्वगिन्द्रियम् ।
अतः संवेद्यते शैत्यं कर्णादि शुषिरष्विव ॥४६६॥
और जब अन्दर भी खाली विभाग में सर्वतः स्पर्शेन्द्रिय है तब जैसे कान आदि खाली वस्तुओं में दिखता है वैसे ही वहां भी शैत्य दिखता है । (४६६ )
प्रथुत्वमंगलासंख्य भागोऽतीन्द्रिय वेदिभिः ।
त्रयाणामपि निर्दिष्टः श्रवण घ्राण चक्षुषाम् ॥४६७॥