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________________ (१४०) . तरह-क्रोध के क्रमशः चार भेद होते है- १- जल में रेखा समान, २- रेत धूल में रेखा समान, ३- पृथ्वी-मिट्टी पर रेखा समान और ४- पर्वत (पत्थर) पर रेखा समान तथा चार प्रकार का मान- १- बेंत की छड़ी के समान, २- काष्ठ की लकड़ी के समान, ३- हड्डी के समान और ४- पत्थर के स्तम्भ के समान होता है। इस तरह उत्तरोत्तर विशेष से विशेषतर दृढ़ होता है। चार प्रकार की माया भी पूर्वापर विशेष से विशेषत: वक्र होती है- १- बांस की छाल के समान, २- लकड़ी की छाल के समान, ३- मेंढे के सींग समान और ४- बांस की जड़ के समान तथा चार प्रकार का लोभ- १- हल्दी के रंग समान, २- सकोरे में लगे मैल समान, ३- गाड़ी के पहिये के कीट समान तथा ४-किरमिची रंग के समान होता है। ये रंग समान होते हैं, ये पूर्वापर विशेष से विशेषतः पक्के दृढ़ता वाले रंग होते हैं । (४२६-४२७) तथा - प्रज्ञापनायां प्रज्ञप्ताः स्वान्योभयप्रतिष्ठिता ।.. अप्रतिष्ठितकाश्चैवं चत्वारोऽपि चतुर्विधाः ॥४२८॥ . और प्रज्ञापना सूत्र में इन चार कषायों के अन्य प्रकार से चार भेद कहे हैं१- स्वप्रतिष्ठित, २- अन्यप्रतिष्ठित, ३- उभय प्रतिष्ठित और ४- अप्रतिष्ठित । (४२८) तथाहि- स्वदुश्चेष्ठितः कश्चित् प्रत्यापायमवेक्ष्य यत् । कुर्यादात्मोपरि क्रोधं स एषः स्वप्रतिष्ठितः ॥४२६॥ चार कषाय में से एक क्रोध के विषय कहते हैं कि- १- एक मनुष्य अपने दोष जानकर दुःखी होता है और अपने आप परं जो क्रोध करता है वह स्वप्रतिष्ठित क्रोध कहलाता है । (४२६) उदीरयेद्यदा क्रोधं. परः सन्तर्जनादिभिः । तदा तद्विषय क्रोधो भवेदन्य प्रतिष्ठितः ॥४३०॥ २- कोई अन्य मनुष्य अपना तिरस्कार-अपमान आदि करता है, इससे स्वयं को जो क्रोध आता है वह अन्य प्रतिष्ठित क्रोध कहलाता है। (४३०) एतच्च नैगम नय दर्शनं चिन्त्यतां यतः । .. स तद्विषयतामात्रान्मन्यते तत्प्रतिष्ठितम् ॥४३१॥ यह विचार नैगम नय की अपेक्षा से कहा है क्योंकि क्रोध तो हमें हुआ है, परन्तु इसका कारण अन्य जन है। इसलिए केवल अन्य विषयता के कारण से इसे अन्य प्रतिष्ठित क्रोध कहा है। (४३१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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