SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३१) हैं, यह एक पाप तो सदा करते रहते हैं । उसमें भी पर के प्राण नाश करने के लिए विचार क्यों करना चाहिए.? ऐसा करने से हमारी फिर गति क्या होगी? इसलिए हमें केवल धन लेना है, किसी के प्राण नहीं लेना । (३७३ से ३८०) जम्बू वृक्ष के उदाहरण के समान छः व्यक्तियों की कृष्ण लेश्या आदि लेश्या कही हैं वैसे ही इस उदाहरण में भी छ: चोरों की छः प्रकार की लेश्या अलगअलग पूर्व के समान समझना। सर्वस्तोकाः शुक्ललेश्या जीवास्तेभ्यो यथोत्तरम् । पद्मलेश्यास्तेजोलेश्या असंख्येयगुणाः क्रमात् ॥३८१॥ अनन्तजास्ततो लेश्याः कापोत्याद्यास्ततस्तथा । तेभ्यो नील कृष्णलेश्याः क्रमाद्विशेषतोऽधिकाः ॥३८२॥ इति लेश्यास्वरूपम्। शुक्ल लेश्या वाले प्राणी सबसे कम हैं इससे उत्तरोत्तर असंख्य गुना अनुक्रम से पद्म लेश्या वाले और तेजो लेश्या वाले जीव होते हैं । इससे अनन्त गुना कापोत लेश्या काले जीव होते है और इससे भी विशेषतः अधिक अनुक्रम से नील लेश्या वाले और कृष्ण लेश्या वाले जीव होते हैं । (३८१-३८२) इस तरह लेश्या नामक सत्तरहवें द्वार का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ। . निर्व्याघातं प्रतीत्य स्यादाहारः षड्दिगुद्भवः । व्याघाते त्वेष जीवानां त्रिचतुष्पंचदिग्भवः ॥३८३॥ अलोक वियताहार द्रव्याणां स्खलनं हि यत् । स व्याघातस्तदभावो निर्व्याघातमिहोच्यते ॥३८४॥ अब अठारहवें द्वार आहार की दिशा के विषय में कहते हैं- किसी भी प्रकार का व्याघात (विघ्न) न हो तो सर्व जीवों को छ: दिशा का आहार होता है और व्याघात हो जाये तो तीन, चार या पांच दिशा का आहार होता है । अलोकाकाश से आहार की द्रव्य-वस्तुओं की स्खलना में रुकावट हो उसका नाम व्याघात है। ऐसी किसी प्रकार की स्खलना का अभाव हो वह निर्व्याघात अर्थात् व्याघात नहीं होने का भाव कहलाता है । (३८३-३८४)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy