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________________ (१२०) बहुधासां परीणामस्त्रिधा वा नवधा भवेत् । सप्तविंशतिधा चैकाशीतिधा त्रिगुणस्तथा ॥३२४॥ इन लेश्याओं के परिणाम अधिकतः तीन प्रकार से, नौ प्रकार से सत्ताईस प्रकार से, एक्यासी प्रकार से, इस तरह तीन-तीन गुना होते जाते हैं । (३२४) जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भेदतास्त्रिविधो भवेत् । प्रत्येकमेषा स्वस्थान तारतम्य विचिन्तया ॥३२५॥ भवेन्नवविधस्तेषामपि भेद विवक्षया । सप्तविंशतिधा मुख्योऽप्येवं भेदौस्त्रिभिस्त्रिभिः ॥३२६॥ (युग्मं) जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट - इस तरह तीन भेद हैं। इन प्रत्येक के निज स्थान के तारतम्य-कम बेशी के हिसाब की अपेक्षा से नौ भेद होते हैं और इसके भी तीन-तीन गुण करते सत्ताईस, एक्यासी, दो सौ तैंतालीस इत्यादि बहुत भेद होते हैं। (३२५-३२६) तथाहुः प्रज्ञापनायाम्- "कण्हले साणं भंते कति विहं परिणाम परिणमति? गोतम तिविहं वा णव विहं वा सत्ता विसति विहं वा एक्कासीति विहं वा तेआल दुसय विहं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति ॥" - इस विषय में प्रज्ञापना सूत्र के अन्दर कहा है कि- गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं - हे भगवन्त्! कृष्ण लेश्या से कितने प्रकार से अध्यवसाय होते हैं । इसका उत्तर श्रमण भगवान् महावीर प्रभु देते हैं कि- हे गौतम! कृष्ण लेश्या तीन प्रकार से होती है, नौ प्रकार से, सत्ताईस प्रकार से, एक्यासी प्रकार से एवं दो सौ तैंतालीस प्रकार से अध्यवसाय होते हैं । इस तरह तीन-तीन गुना करते बहुत प्रकार से अध्यवसाय होते हैं। लेश्या परिणामस्यादि मान्त्ययोनांगिनां मृतिः क्षणयोः । अन्तमुहूर्तकेऽन्त्ये शेषे वाद्ये गते सा स्यात् ॥ तत्राप्यन्तर्मुहूर्तंन्त्ये शेषे नारक नाकिनः । नियन्ते नरतिर्यंचश्चाद्येऽतीत इति स्थितिः ॥ लेश्या के परिणाम के पहले और अन्तिम क्षण में प्राणी की मृत्यु नहीं होती है, अन्तिम अन्तर्मुहर्त शेष रहा हो उस समय अथवा प्रथम अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो गया हो तब होती है। इसमें भी अन्तिम अन्तमुहूर्त शेष रहा हो तब नारकी और देवता
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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