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________________ (११४) द्रव्येषु बाह्ये ष्वप्येवं कर्मणामुदयादिषु । सामर्थ्य दृश्यते तत्किं न योगान्तरर्गतेषु तत् ॥२८॥ जिस तरह योगान्तर्गत पित्तद्रव्य में क्रोध के उदय को उत्तेजित करने का गुण दिखता है क्योंकि क्रोधातुर मनुष्य की अति पित्त प्रकृति होती है। इसी तरह से कर्म के उदयादिक बाह्य द्रव्यों में भी जब ऐसा सामर्थ्य दृष्टिगोचर होता है तब योग्य के अन्तर्गत द्रव्यों में यह सामर्थ्य अवश्यमेव होता है। (२८८-२८६) सूरादध्यादिकं ज्ञान दर्शनावरणोदये । - तत्क्षयोपशमे हेतुर्भवेद् ब्राह्मी वचादिकम् ॥२६०॥ . जैसे मदिरा, दही आदि पदार्थ ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के उदय के हेतु रूप हैं और ब्राह्मी, वच आदि औषधि उसके क्षयोपशम का हेतुभूत हैं। (२६०) एवं च- कषायोद्दीपकत्वेऽपिलेश्यानांचतदात्मता। तथात्वेह्य कषायाणां लेश्याभावः प्रसज्यते॥२६१॥ और इसी तरह कषायों की उत्तेजकता होने पर भी लेश्याओं की तदात्मकता-उसी के सद्दश नहीं होती क्योंकि-यदि इस तरह हो जाये, ऐसा कहें तो अकषायों की लेश्या के अभाव का प्रसंग आयेगा। (२६१) लेश्याः स्युः कर्मनिष्यन्द इति यत्कैश्चिदच्यते । तदप्यसारं निष्यन्दो यदि तत्कस्य कर्मणः ॥२६२॥ तथा लेश्या कर्म का निष्यंद है - इस तरह कई कहते हैं, वह भी योग्य नहीं है क्योंकि निष्यंद हो तो कौन से कर्म का निष्यंद होता है ? वह कहते हैं । (२६२) चेद्यथा योगमष्टानामप्यसौ कर्मणामिति । तच्चतुः कर्मणामेताः प्रसज्यन्तेऽध्ययोगिनाम् ॥२६३॥ न यद्ययोगिनामेता घातिकर्म क्षयान्मता । तत एवं तदा न स्युर्योगि केवलिनामपि ॥२६४॥ यदि इस तरह कहते हैं कि वह आठों कर्मों का निष्यंद है तो चार कर्मों वाले अयोगियों को भी वैसा ही प्रसंग आयेगा, परन्तु घाती कर्मों के क्षय होने के कारण वह लेश्या अयोगी को नहीं होती और इससे सयोगी केवली को भी नहीं होती। (२६३-२६४) .
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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