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मस्तक, गर्दन, हाथ और पैर ये चार खराब लक्षण वाले हों और शेष अवयव सुन्दर हों वह कुब्ज (कुबड़ा ) संस्थान कहलाता है । (२०६) हुंडं तु सर्वतो दुष्टं केचिद्वामन कुब्जयोः । विपर्यासमाम नन्ति लक्षणे कृत लक्षणाः ॥ २१० ॥ इति संस्थान स्वरूपम् ॥१०॥
सब अवयव मात्र खराब हों ऐसा हुंडक संस्थान कहलाता है । कई लक्षण शास्त्रियों ने वामन और कुब्ज संस्थानों के पूर्व से विपरीत लक्षण कहे हैं। (२१०) इस तरह दसवां द्वार संस्थान का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ । अंगमानं तु तुंगत्वमानमंगस्य देहिनाम् । स्थूलता पृथुताद्यंतु ज्ञेय मौचित्यतः स्वयम् ॥२११॥ . इति अंगमान स्वरूपम् ॥११॥
अंगमान अर्थात् जीव के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण, इसकी मोटाई और चौड़ाई आदि तो उसकी योग्यता अनुसार स्वयमेव समझ लेना । (२११) इस तरह ग्यारहवां द्वार अंगमान का स्वरूप कहा है।
समित्येकी भाव योगाद्वेदनादिभिरात्मनः । उत्प्राबल्येन कर्मांश घातो यः स तथोच्यते ॥ २१२ ॥
सम अर्थात् एकीभाव या समान भाव के योग से वेदना आदि भोगकर आत्म के कर्मों का उद्घात - उसका नाश करना, उसका नाम समुद्घात कहलाता है । (२१२)
यतः समुद्घातगतो जीवः प्रसह्य कर्म पुद् गलान् ।
कालान्तरानुभवानपि क्षपयति द्रुतम ॥ २१३ ॥
क्योंकि समुद्घातगत जीव जो बहुत काल के बाद भोगने को होते हैं ऐसे कर्मपुद्गलों को, तुरन्त बल का उपयोग कर खत्म कर देते हैं । (२१३) तच्चैवम्- कालान्तरवे द्यानयमाकृष्योंदीरणेन कर्मांशान् । उदयावलि कायां च प्रवेश्य परिभुज्य शातयति ॥ २१४॥
वह इस तरह-आत्मा कालान्तर में वेदने लायक़ कर्म पुद्गलों को उदीरणा द्वारा आकर्षण कर उदय में लाकर भोगता है और उसे खत्म करता है । (२१४)
ते चैवन्-वेदनोत्थः कषायोत्थो मरणान्तिक वैक्रियौ । आहारकस्तैजसश्च छद्मस्थानां षड् प्यमी ॥ २१५॥