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________________ (६६) पांचवें अंग में तो वायु की तथा संजितिर्यंच और मनुष्य की भी कृत्रिम वैक्रिय स्थिति उत्कृष्ट रूप में एक अन्तर्मुहूर्त का कही है । (१६०) श्री सूत्र कृतांगे तु - . वेयालिए नाम महभियावे एगायए पव्वतमंतरिख्खे । हम्मति तत्था बहुकूर कम्मा पर सहस्सा उ मुहुत्त याणं ॥१६॥ आकाश में शिला का बनाया जो वैक्रिय पर्वत होता है. वहां बहुत क्रूरता पूर्वक नारकी को हजारों मुहूर्त के बहुत समय तक मारने में आता है । (१६१) ऐसा सूत्र कृतांग (सूयगडांग) सूत्र में कहा है। .... "नामेति संभावने। एतन्नरकेषु यथान्तरिक्षे महाभितापे महादुःखे एक शिलाघटितः दीर्घ वेयालिए ति वैक्रिय परमाधामिक निप्पादितः पर्वतः । तत्र हस्त स्पर्शि कया समारूहन्तो नारक बहु क्रूरकर्माणो हन्यन्ते पीडयन्ते। सहस्रसंख्यानां मुहूर्तानां पर प्रकृष्टं प्रभूतं कालं हन्यन्ते । इत्यर्थ ।" ___ यहां नाम शब्द संभव के अर्थ में है । इन नरकों में अन्तरिक्ष के समान महादुःखदायक एक शिला का बनाया हुआ लम्बा वैक्रिय द्वारा परमाधामियों द्वारा तैयार पर्वत है, उसके ऊपर हाथ के सहारे से चढ़ते नरक के हजारों जीवों को अतीव क्रूरतापूर्वक मारा जाता है। "अत्र परमाधार्मिक देवविकुर्वितस्य पर्वतस्य अर्धमासाधि कापि स्थितिरुक्ता इति ज्ञेयम्। तत्त्वं तु जिनो जानीते ॥" यहां परमाधामियों द्वारा बनाये पर्वत की आधे महीने से अधिक स्थिति भी कही । वास्तविकता क्या है वह जिनेश्वर भगवान् जानें । अंतर्मुहूत्तं द्वेधापि स्थितिराहारकस्य च । अनादिके प्रवाहेण सर्वतैजस कार्मणे ॥१६२॥ सावसाने तु भव्यानां सिद्धत्वे तद भावतः । अभव्यानां निरन्ते च पंगूनां मुक्ति वर्त्मनि ॥१६३॥ इति स्थितिकृतः विशेषः । आहारक शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों स्थिति अन्तर्मुहुर्त की हैं । तेजस और कार्मण शरीर प्रवाह से अनादि है । भव्य जनों को तो सिद्धावस्था में इन दोनों का अभाव होने से सान्त-नाशवान् है जबकि मोक्ष मार्ग में जाने में अशक्त अभव्य जीवों को ये दोनों अनन्त हैं । (१६२-१६३)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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