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________________ (८८) आयामतो विशिष्येत तत्रैकेन्द्रिय देहिनाम् । अंगुला संख्येय भाग प्रमाणा सा जघन्यतः ॥१३५॥ उत्कर्षतश्च लोकान्ताल्लोकान्तं यावदाहिता । एकेन्द्रियाणां जीवानामेवमुत्पत्ति संभवात् ॥१३६॥ युग्मम्। इसमें एकेन्द्रिय प्राणियों की अवगाहना की लम्बाई में अन्तर है क्योंकि वे जघन्यता से अंगुल के असंख्यात विभाग समान हैं और उत्कृष्टता से लोक के एक किनारे से दूसरे किनारे तक है क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों की इस प्रकार की उत्पत्ति संभव है। (१३५-१३६) सामान्यतोऽपि जीवानां विभाव्यैतदपेक्षया । लोकान्तावधि लोकान्ता तैजसस्यावगाहना ॥१३७॥ .. तथा इस अपेक्षा को लेकर सामान्य रूप में भी जीवों की तेजस शरीर की अवगाहना लोक के एक किनारे से दूसरे किनारे तक होती है। (१३७) अंगुलासंख्य भागेन प्रमिताथ जघन्यतः ।। निर्दिष्टा विकलाक्षाणां तैजसस्यावगाहना ॥१३८॥ तिर्यग्लोकाच्च लोकान्तावधि तेषां गरीयसी । संभवो विकलाक्षाणां यत्तिर्यग्लोक एव हि ॥१३६॥ विकलेन्द्रिय जीव के तेजस शरीर की अवगाहना जघन्य रूप में अंगुल के असंख्य भाग समान कही है, और उत्कृष्ट रूप में तिर्यंच लोक से लोकान्त तक की है क्योंकि विकलेन्द्रियों का संभव केवल तिर्यग् लोक में ही होता है। (१३८-१३६) अघोलोकेऽप्यधोलोक ग्रामेषु दीर्घिकादिषु । उर्ध्वं च पांडकवनवर्ति वापीहृदादिषु ॥४०॥ सम्भवो विकलाक्षाणां यद्यप्यस्ति तथापि हि। सूत्रे स्वस्थानमाश्रित्य तिर्यग्लोको निरूपितः ॥१४१॥ युग्मम् । यद्यपि अधोलोक में भी अधोलोक गांव की बावड़ियों के विषय में तथा उर्ध्वलोक में पांडक वन मध्य में आई बावडी तथा हृद-सरोवर आदि में विकलेन्द्रियों का संभव है। फिर भी सूत्र में स्वस्थान में आश्रित तिर्यग् लोक कहा है। (१४०-१४१) तत उक्तातिरिक्तापि विकलानां भवत्यसौ । अधोग्रामात्यांडकाच्च लोकाग्रान्ता गरीयसी ॥१४२॥ इसलिए कहा है कि इससे अधिक की अवगाहना विकलेन्द्रियों को होती है
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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