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जीवन पर्यंत पालन करता है तथा सदा संयम में 'अस्खलित' =निरतिचार रहता है उस साधु को सच्चे साधु की गिनती में स्थान दिया जाता है। शेष तो ।।४३७।। • बहुदोससंकिलिट्ठो, नवरं मइलेइ चंचलसहायो । सुट्ठ वि यायामितो, कायं न करेइ किंचि गुणं ॥४३८॥
अज्ञान-क्रोध मदादि बहुत दोषों से चित्त की संक्लेशतावान तो विषयादि में भटकते स्वभाववान बनकर स्वात्मा को मलिन करने वाला होता है। वह काया से तपश्चर्यादि द्वारा अधिक कष्ट देनेवाला हो तो भी विचार पूर्वक वर्त्तक न होने से वह कष्टकारी क्रिया करते हुए भी स्वयं के आत्मा को कर्मक्षयादि लेश भी गुणवाला नहीं बनाता ।।४३८।।
केसिंचि वरं मरणं, जीवियमन्नेसिमुभयमन्नेसिं । ददुरदेविच्छाए, अहियं केसिंचि उभयं पि ॥४३९॥
कितनेक लोगों का मरना अच्छा है, कितने को का जीना अच्छा है तो दूसरों का जीना-मरना दोनों अच्छा है और कितनों का दोनों अहितकर है। इस दर्दुरांक देव ने चारों को कहे हुए शब्दों का भाव इस प्रकार है। (भगवान की यह प्ररूपणा है।)
देव ने मुझे मरी कहा-"क्योंकि अनंत सुखमय मोक्ष मेरी राह देख रहा है।"
श्रेणिक को 'जीवो' कहा क्योंकि मृत्यु के बाद नरक जाना है।
अभय को 'जीवो-मरो' कहा कि जीते हुए सुख है धर्म है, मरने के बादं स्वर्ग है।
काल सौकरिक को 'न जीवो' 'न मरो' कहा क्योंकि कसाई के कार्य में यहाँ भी वेदना है और मरने के बाद सातवीं नरक है ।।४३९।। .. केसिंचि य परलोगो, अन्नेसिं इत्थ होइ इहलोगो । .
कस्स वि दुण्णि वि लोगा, दोऽवि हया कस्सई लोगा॥४४०॥ . कितने ही लोगों को परलोक हितकर है तो दूसरों को यह जन्म हितकर है, किसी को यह लोक परलोक दोनों हितकर है तब किसी को दोनों भव स्वकर्म से नष्ट यानि अहितकर है ।।४४०।।
छज्जीवकायविरओ, कायकिलेसेहिं सुट्ठ गुरुएहिं ।
. न हु तस्स इमो लोगो, हवइस्सेगो परो लोगो ॥४४१॥ . पृथ्वीकायादि षट् जीवनिकाय जीवों का संहार के लिए 'विरत' विशेष
श्री उपदेशमाला