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नहीं। क्योंकि अल्पज्ञ शास्त्र-विधानों से अज्ञ होने से वास्तविकता से वह कितनी आराधना करें? ।।४२३।। नाणाहियस्स नाणं, पुज्जइ नाणा पवत्तए चरणं । जस्स पुण दुण्ह इक्कं पि, नत्थ तस्स पुज्जए काइं?॥४२४॥
ज्ञान की विशेषता है-ज्ञानाधिक का ज्ञान पूजा जाता है। क्योंकि ज्ञान से चारित्र का प्रवर्त्तमान है और चारित्री साधु ज्ञानी हो तो विशेष पूजा जाता है जिसमें ज्ञान-चारित्र दोनों में से एक भी न हो तो उसका क्या पूजा जाय? (वास्तव में ज्ञान-चारित्र, दर्शन-चारित्र, तप-चारित्र परस्पर सापेक्ष रहकर ही कार्य करते हैं ।।४२४।।
नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं । संजमहीणं च तवं, जो चरइ निरत्थयं तस्स ॥४२५॥
चारित्र बिना का ज्ञान निरर्थक है, समकित बिना का साधुवेश निरर्थक है, संयम बिना का जो तपाचरण है वह मोक्ष की अपेक्षा से निष्फल है ।।४२५।। जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स् । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हुं सुग्गईए॥४२६॥
वहाँ ज्ञान, चारित्र के बिना कैसे निष्फल है? तो कहा कि-जैसे चंदन का भारवाही गधा भार का भागी बनता है परंतु चंदन के शीत विलेपनादि का भागी नहीं बनता। इसी प्रकार चारित्र रहित ज्ञानी मात्र ज्ञान का भागी बनता है परंतु सुगति मोक्ष का भागी नहीं बनता ।।४२६।। ।
संपागडपडिसेवी, काएसु वएसु जो न उज्जमइ । पवयणपाडणपरमो, सम्मत्तं कोमलं तस्स ॥४२७॥
(चारित्र हीन का दर्शन-समकित निरर्थक-) जो साधु 'सुपागड' =लोक के देखते हुए भी निषिद्ध की आचरणा करता हो और पृथिव्यादि षटकाय की रक्षा में और अहिंसादि महाव्रतों में जो उद्यम नहीं करता उससे वह शासन की लघुता-प्रधान जीवन जीता हो उसका समकित कोमल फोतरे जैसा है ।।४२७।।
चरणकणपरिहीणो, जइ वि तवं चरइ सुटु अइगुरु
सो तिल्लं व किणंतो, कंसियबुद्धो मुणेयव्यो ॥४२८॥ ___चारित्रहीन का तप कैसा? तो कहा कि-चरण सित्तरी के संयम बिना का जो कि चार-चार मास के उपवासादि अति कष्टमयं तप करता हो
श्री उपदेशमाला
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