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________________ भी 'विहरिउकामो' गीतार्थ के बिना अकेले विहार करने की इच्छावाला होता है। वह फिर चाहे 'तवस्सी' =विकृष्टतप (अट्ठम से अधिक तप) से शरीर को तपाकर शरीर को सुखा देता है। (फिर भी उसकी गुणश्रेणि बढ़ती नहीं) दैवसिंक रात्रिक=अतिचारों की 'सोहिय' =प्रायश्चित्त से शुद्धि-प्रक्षालन को, और मूल उत्तरगुण रूप व्रतों के खंडन अतिचारों स्वरूप को नहीं जानता। ऐसे अविशुद्ध की गुणश्रेणि ज्ञानादिगुण सोपान आरोहणा बढ़ती नहीं उतनी ही रहती है। यहाँ टीका में भी विशेष लिखा है कि सद्गुरुनिश्रारहित को स्वयं प्रायश्चित्त से शुद्ध और सम्यक् प्रवृत्तिवान होने पर भी गुणश्रेणि बढ़ती नहीं। पूर्व में जितनी रहे उतनी ही रहती है क्योंकि गुणवान गुरु का योग ही गुणश्रेणि की वृद्धि का कारण है इसमें भी अल्पज्ञानी एकाकी मुनि संक्लिष्ट चित्तवान् हो तो उसकी गुणश्रेणि तो नष्ट ही हो जाती है। और उसको पूर्वोक्त अनंत संसारीपना ही प्राप्त होता है ।।४१२-४१३।। अप्पागमो किलिस्सइ, जड़ वि करेइ अइदुक्करं तु तवं। सुंदरबुद्धीइ क्यं, बहुइयं पि न सुंदरं होई ॥४१४॥ .. 'अल्पागम' =कम पढ़ा हुआ जो कि अति दुष्कर तप करता हो तो भी वह केवल (अज्ञान) कष्ट ही भोग रहा है क्योंकि स्व कल्पनानुसार 'यह सुंदर है' ऐसी बुद्धि से किया हुआ भी वास्तव में सुंदर नहीं होता। (कारण कि वह अज्ञान से उपहत है जैसे-(लौकिक ऋषियों का तप-कष्ट) ।।४१४।। - अपरिच्छिय सुयनिहसस्स, केवलमभिन्नसुत्तचारिस्स । सब्बुजमेण वि कयं, अन्नाणतवे बहुं पडइ ॥४१५॥ - 'श्रुतनिकष' आगम के सम्यग्भाव को, रहस्य को (अर्थात् उत्सर्ग अपवादादि के विषय विभागानुसार) अच्छी प्रकार निश्चित्तरूप से नहीं जानने से और मात्र अभिन्न-विवरण हीन-विशिष्ट व्याख्यान रहित सूत्र मात्र के अनुसार 'चारि' =चारित्र अनुष्ठान करने के स्वभाववाला उसके समस्त प्रयत्न से भी किये हुए अनुष्ठान विशेषकर (पंचाग्नि सेवनादि रूप) अज्ञानतप में जाते है? मात्र अल्प ही आगमानुसारिता में आता है क्योंकि ऊपर कहा वैसा उसे विषय विभाग का ज्ञान नहीं है। वह इस प्रकार सूत्र में सामान्य से कहे हुए पदार्थ सूत्र की व्याख्या में विशेषरूप में दर्शाते हैं। जिससे पूर्वापर में कहे हुए उत्सर्ग सूत्र या अपवाद सूत्र के साथ विरोध न हो, उस विवरण के ज्ञान बिना वह कैसे समझे? और जो सूत्र ही कार्यकारी हो यानि अकेले सूत्र का यथाश्रुत अर्थ ही लेना हो, परंतु उस पर विचारणा न करनी हो तो अनुयोग 87 श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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