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भाव) चार प्रकार को आश्रय लेकर तोलना (अलबत् द्रव्यादि चार के द्रव्य में पुरुष का समावेश हो जाता है किन्तु यहाँ अलग लिये वह उनकी प्रधानता दर्शाने के लिए अब इस प्रकार तुलना न करे तो अतिचार लगे वह दर्शाते हैं ।।३९५।।
चरणइयारो दुविहो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे छट्ठाणा, पढमो पुण नवविहो तत्थ ॥३९६॥
(अतिचार सामान्य से रत्नत्रयी के प्रसंग में लगते है विशेष से) चारित्र में अतिचार (अतिक्रमण) दो प्रकार से १. मूलगुण में और २. उत्तरगुण में (इन में) मूलगुण में छ स्थान (पाँच महाव्रत छट्ठा रात्रि भोजन विरमण व्रत) अतिचार के विषय है। इसमें भी प्रथम प्राणातिपात विरमण में (पृथ्वीकायादि ५ विकलेन्द्रिय ३ पंचेन्द्रिय १ इन नौ की रक्षा करने की होने से) नौ प्रकार से है (अतिचार के नौ स्थान) ।।३९६।। का सेसुक्कोसो मज्झिम-जहन्नओ, वा भवे चउद्धा उ । . उत्तरगुणडणेगविहो, दंसणनाणेसु अट्ठ ॥३९७॥
(शेष मृषावादादि विरमणादि पाँच अतिचार के स्थान बनते हैं, उसमें मृषावादादि अतिचार) उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य ३ प्रकार से होता है या द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से ऐसे ४ प्रकार से हो उत्तरगुण पिंड विशुद्धि आदि के अतिचार अनेक प्रकार से बनते हैं। वैसे दर्शन-ज्ञान में ८-८ आचार होने से अतिचार के ८-८ स्थान है। यहाँ दर्शन-ज्ञान से चारित्र के अतिचार प्रथम कहने का कारण चारित्र मोक्ष का अंतरंग स्वरूप है। मोक्ष संपूर्ण स्थिर आत्म स्वरूप है और चारित्र आंशिक स्थिरता रूप है ।।३९७।।
जं जयइ अगीअत्थो, जं च अगीयत्थनिस्सिओ जयइ ।
वट्टायेइ य गच्छं, अणंतसंसारिओ होइ ॥३९८॥ . . (अतिचार असत्प्रवृत्ति से लगता है, सत्प्रवृत्ति ज्ञान पूर्वक के प्रयत्न से होती है नहीं तों) 'अगीतार्थ' =शास्त्रज्ञान रहित (मर्म से अनभिज्ञ) जो कुछ (तप क्रियादि में) प्रयत्न करता है और ऐसे अगीतार्थ की निश्रा में रहा हुआ (अगीतार्थ को गुरु मानकर) यत्न करता है और गच्छ चलाता है (आचार्य बनता है) (च शब्द से अज्ञ होने पर भी अभिमान से ग्रंथों की व्याख्या करता है। बह अनंत संसारी बनता है ।।३९८।। ... कह उ? जयंतो साहू, वट्टावेइ य जो उ गच्छं तु ।।
संजमजुत्तो होउं, अणंतसंसारिओ भणिओ ॥३९९॥
श्री उपदेशमाला