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________________ पाय पहे न पमज्जड़, जुगमायाए न सोहए इरियं । पुढवीदग अगणिमारुअ-वणस्सइतसेसु निरविक्खो ॥३६० ॥ मार्ग में (विजातीय पृथ्वी पर प्रवेश के समय) पूर्व रज से संसक्त पैर का प्रमार्जन न करें, मार्ग में चलते समय धूंसर प्रमाण दृष्टि से ईयासमिति न पाले, पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस काय जीवों की निःशंकता से विराधना करें ।। ३६०।। सय्यं थोवं उवहिं न पेहए, न य करेइ सज्झायं । सद्दकरो, झंझकरो, लहुओ गणभेयततिल्लो ॥ ३६१॥ (मुहपत्ति आदि) अल्प भी उपधि का पडिलेहण न करे, दिन में स्वाध्याय न करें, (रात को) जोर से बोले, कलह करे, (जोर शोर से बोलने का आदि हो ) तुच्छ प्रकृतिवान् हो, गणभेद - गच्छ में भेद मिराने की प्रवृत्ति करें ।। ३६१ ।। खिताईयं भुंजड़, कालाईयं तहेव अविदिनं । गिण्हइ अणुइयसूरे, असणाई अहव उवगरणं ॥३६२॥ क्षेत्रातीत, दो कोश से अधिक जाकर वहोरे हुए आहार पानी वापरे, कालातीत तीन प्रहर उपरांत वहोरा हुआ वापरे, मालिक या गुरु के द्वारा अदत्त वापरे, सूर्योदय के पूर्व अशनादि अथवा उपकरण वहोरे। (ये कार्य जिनाज्ञा संमत नहीं है ) ।।३६२ ।। ठवणकुले न ठवेई, पासत्थेहिं च संगयं कुणड़ | निच्चमवज्झाणरओ, न य पेहपमज्जणासीलो ॥ ३६३ ॥ ( खास प्रयोजन में आहारादि के लिए गुरुने स्थापन किये हुए और रोज के त्यागे हुए श्रीमंत या भक्त के घर) स्थापनकर न रखें (और निष्कारण उनके वहाँ गोचरी जाय) पासत्थाओं से मैत्री करे, नित्य 'अपध्यान' = दुष्ट संक्लिष्ट चित्त युक्त रहे (प्रमाद से वसति - उपधि आदि में) प्रेक्षण प्रमार्जनशील न रहे ।। ३६३।। 75 रीयइ य दवदवाए, मूढो परिभवइ तहय रायणिए । परपरिवायं गिण्हs, निठुरभासी विगहसीलो ॥ ३६४ ॥ मार्ग में "दवदवाए" 'द्रुतं' = शीघ्रता से चले, वह मूढ़ - मूर्ख 'रत्नाधिक'=विशिष्ट ज्ञानादिक युक्त का तिरस्कार करें, दूसरों की निंदा करें, कठोर वचन बोले, (स्त्री कथादि) विकथा में मग्न बनें || ३६४ || श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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