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लिए पराक्रम करने के द्वारा) यश और पुण्य का भाजन बनने के द्वारा कीर्ति को पाता है। दुर्विनीत अपने कार्य की कभी सिद्धि नहीं कर सकता ।।३४२।।
जह जंह खमइ सरीरं, धुवजोगा जह जह न हायति । कम्मक्खओ अ विउलो, विवित्तया इंदियदमो ॥३४३॥
(तप द्वार-) (कितनेक लोग ऐसा कहते हैं कि-दुःख सहन करे तो ही तप, परंतु ऐसा नहीं है "महादुःख सहन करने वाले नारकी महातपस्वी हो जायेंगे! और शमनिमग्नमहायोगी तपस्वी नहीं माने जायेंगे! परंतु) जितनाजितना तप शरीर सहन करे और (जिस तप से) संयम की प्रतिलेखना, वैयावच्च, स्वाध्यायादि नित्य योगों में हानि न आवे (उतना-उतना तप करना) ऐसा तप करने से १. विपुल कर्म क्षय, २. विवित्तया-शरीर से आत्मा भिन्न होने की भावना, ३. इंद्रियों पर निग्रह प्राप्त होता है ।।३४३।।
जड़ ता असक्कणिज्जं, न. तरसि काऊण तो इमं कीस। अप्पायत्तं न कुणसि, संजमजयणं जड़जोगं? ॥३४४॥
(शक्ति द्वार-) (मुझ में शक्ति नहीं है ऐसा मानकर प्रमादी होने वाले को हितशिक्षा) जो तुम (भिक्षु प्रतिमादि अति दुष्कर आराधना दृढ़ संघयण के अभाव से) अशक्य होने से नहीं कर सकते तो भी हे साधु! ऊपर दर्शित साधु को शक्य विधेय-आदर, निषेध-त्याग स्वरूप समिति आदि पालन स्वाधीन संयम आचरणा क्यों नहीं करता? ।।३४४।।
जायम्मि देहसंदेहयम्मि, जयणाइ किंचि सेविज्जा । . अह पुण सज्जो अ निरुज्जमो य तो संजमो कतो?॥३४५॥
. . (शास्त्र उत्सर्ग-अपवाद रूप होने से अपबाद से प्रमाद करनेवाले का क्या दोष? उसका उत्तर-) प्राणांत संकट आने पर भी जयणा से (पंचक परिहानिद्वारा अधिक दोष त्याग के साथ कुछ अनेषणीयादि अल्प दोष सेवन रूपी (विवेक से) अपवाद का आश्रय करे (परंतु इसके अलावा नहीं यह आगम अभिप्राय है। परंतु समर्थ के निरोगी (शक्ति होने पर भी) शैथिल्य का सेवन करे तो संयम कैसे रहे? [अर्थात् जिनाज्ञा से पराङ्मुख में संयम कैसे रहे? सारांश विहित अनुष्ठानों में उद्यम चाहिए क्योंकि कारण की उपस्थिति में भी दोष सेवन न करें यह दृढ़ धर्मिता है, शास्त्र मान्य है] ।।३४५।।
मा कुणउ जड़ तिगिच्छं, अहियासेऊण जइ तरइ सम्म । अहियासिंतस्स पुणो, जड़ से जोगा न हायंति॥३४६॥ (यहाँ तक २९५ गाथा में कहे हुए समिति आदि द्वारों का वर्णन
श्री उपदेशमाला