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जैसा है) ।।३१४।।
गुणदोस बहुविसेसं, पयं पयं जाणिऊण नीसेसं । दोसेसु जणो न, विरज्जड़ ति कम्माण अहिगारो ॥३१५॥
जिनागम के पद-पद पर ( ज्ञानादि) गुणों का और क्रोधादि कषायों का दोषों का (मोक्ष फल और संसार जैसा अत्यधिक अंतर जानने पर भी लोक5- पाप क्रिया से विरक्त नहीं होते यह जीवात्मा पर कर्मों का वर्चस्व सूचन करता है ।। ३१५ ।।
अट्टट्टहासकेलिकिलत्तणं हासखिड्डजमगरूई ।
कंदप्पं उवहसणं, परस्स न करंति अणगारा ॥३१६ ॥ "चार कषाय के वर्णन के बाद हास्यादि द्वार दर्शाते हैं। हास्य द्वारअट्टहास्य, रमंत द्वारा दूसरों को हास्यास्पद बनाना, भांड चेष्टा करनी, विषय राग बढ़े वैसे जमगरूई-यमकादि काव्य (गीत - उखाणे - अंताक्षरी) में आनंद मानना, कंदर्प - सामान्य हास्य, मजाक - कामवश मजाक करनी, उवहसणदूसरों की हंसी मश्करी करनी इत्यादि हास्य साधु नहीं करते ।। ३१६ ।। साहूणं अप्परूई, ससरीरपलोअणा तवे अरई । सुत्थिअवन्नो अइपहरिसो य नत्थी सुसाहूणं ॥३१७॥
( रति-द्वार) साधु देह प्रिय नहीं होता । मेरा शरीर सशक्त है, सुंदर हैं, ऐसी दृष्टि से नहीं देखना, तप धर्म में अरति न करें, मैं रूपवान हूँ ऐसी आत्मश्लाघा न करें। और अतिलाभ में भी साधु-हर्ष न करें, (यहाँ दो बार साधु शब्द ऐसा सूचित करता है कि साधु ऐसी भिन्न भिन्न प्रकार की रति रहित होता है) ।।३१७।।
उब्वेयओ अ अरणामओ अ, अरमंतिया य अरई य । कलिमलओ अणेगग्गया य कत्तो ? सुविहियाणं ॥ ३१८ ॥
( अरति द्वार-) उद्वेगक - ( धर्मधैर्य में चंचलता) अरण आमय विषय प्रति गमन का चित्तरोग, अरमंतिया धर्म- ध्यान से चित्त की विमुखता, अरति-चित्त में गाढ़ उद्वेग, इष्ट विषयों की अप्राप्ति से विषय लंपटता के कारण 'कलिमलओ'=मानसिक उचाट 'अनेकाग्रता' = यह पहनुं, यह खाउं, यह देखूं आदि चित्त का डांवाडोलपना ऐसी अरति सुविहित अर्थात्-धर्मशुक्ल ध्यान के तत्त्व से भावित मुनियों को कैसे हो ? ( नहीं होती) ।।३१८।। सोगं संतायं अधिनं च मन्नुं च वेमणस्सं च । कारुण्ण - रुन्नभावं न साहुधम्मम्मि इच्छंति ॥३१९॥
श्री उपदेशमाला
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