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सारीर-माणसाणं, दुक्खसहस्साण वसणपरिभीया । नाणंकुसेण मुणिणो, रागगइंदं निरंभंति ॥२६४॥
शारीरिक और मानसिक हजारों दुःखों की पीड़ा से भयभीत मुनि ज्ञान रूपी अंकुश से राग रूपी उच्छंखल गजेन्द्र को (उस पर आक्रमणकर) निगृहित करता है। [तात्पर्य राग यह भव हेतु है, भव दुःखात्मक है अतः भव भीरु आत्मा उसके हेतुभूत राग को ही प्रथम से तोड़ते हैं।] ।।२६४।।
सुग्गइमग्गपईयं, नाणं दितस्स हुज्ज किमदेयं? । जह तं पुलिंदएणं, दिन्नं सिवगस्स नियगच्छिं ॥२६५॥
(राग निग्रह सम्यग्ज्ञान से होता है) अतः श्रेष्ठ गति, मोक्ष मार्ग, दीपक समान प्रकाशक सम्यग्ज्ञान देने वाले गुरु को बदले में क्या देने लायक नहीं है? अर्थात् प्राण भी दिये जा सके! जैसे उस (शिव भक्त) एक भिल ने (शिव मूर्ति का एक नेत्र निकला हुआ देखकर) स्वयं के नेत्र को निकालकर उस मूर्ति को लगा दिया। इसी प्रकार ज्ञान दाता प्रति मात्र बाह्य भक्ति नहीं परंतु अंतर का बहुमान होना चाहिए।] ।।२६५ ।। - सिंहासणे निसण्णं, सोवागं सेणिओ नरवरिंदो ।
विज्जं मग्गइ पयओ, इअ साहुजणस्स सुअविणओ ॥२६६॥ .. चंडाल को सिंहासन पर बिठाकर श्रेणिक राजा ने विनय पूर्वक प्रार्थना की। इस प्रकार साधुजन को श्रुतज्ञान का (ज्ञान दाता का) विनय करना चाहिए। ऐसा विधान होने पर भी गुरु का अपलाप अवर्णवाद करनेवाला दुर्बुद्धि क्या पाता है? उसे कहते हैं ।।२६६ ।।
विज्जाए कासवसंतिआए, दगसूअरो सिरिं पत्तो ।
पडिओ मुसं वयंतो, सुअनिण्हवणा इअ अपत्था ॥२६७॥ .... कोई 'काश्यप' हजाम नाई के पास प्राप्त विद्या द्वारा कोई उदक शूकर ने-जल भंड ने (नित्य स्नानकारी त्रिदंडी ने आकाश में त्रिदंड अद्धर रखकर) पूजा-सत्कार प्राप्त किया। (किसी ने विद्या कहाँ से प्राप्त की ऐसा पूछने पर नाई के बदले हिमंतवासी योगी का नाम कहने से) असत्य उत्तर से (त्रिदंड आकाश से नीचे) गिरा। श्रुत का अपलाप यह विद्या का कुपथ्य है (क्योंकि गुरुं का अपलाप यह श्रुतज्ञान का अपलाप है) ।।२६७।। ... . सयलम्मि वि जिअलोए, तेण इहं घोसियो अमाघाओ ।
इक्कं पि जो दुहत्तं, सत्तं बोहेइ जिणवयणे ॥२६८॥
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श्री उपदेशमाला